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20.1.11

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"बेटे, तू क्या यही देखने गया था"




एक रोज रामप्रसाद की माँ ने कहा की पड़ौस के कस्बे में भागवत कथा का समापन होने जा रहा है और उन्हे प्रसाद ग्रहण करने को साथ में चलना चाहिए।

रामप्रसाद अपनी माँ का बहुत आदर करता था, सो उसने ना चाहते हुये भी हामी भर ली।  भागवत कथा में पहुँचने पर कुछ ऐसा गठित हुआ जिसे देखकर रामप्रसाद सुन्न हो गया। व्यास पीठ से आए पंडित जी ने मंच पर ही बोल दिया "अरे मंदिर के प्रबन्धक को बुला के लाओ, काफी देर से उसका नाम पुकार रहा हूँ, आ ही नहीं रहा है सामने।"

प्रबन्धक के आने पर पंडित जी ने आक्रोशित होकर कहा " क्यों भाई ! तुमसे बात तो 11 हजार की हुयी थी, अब तुम दे आठ हजार ही रहे हो, इन माईक वालों के पैसे कौन चुकाएगा। मैं तो पंडित हूँ, मेरे पास क्या हैं इन्हे देने के लिए.....इतने से काम नहीं चलने वाला, बाकी के रुपये भी दो....।"

प्रबन्धक हाथ जोडते हुए कहने लगा.... " पंडित जी, चढ़ावे में जितना भी रूपया पैसा आया है सब जोड़ कर आपको दे दिया है.....अब मेरे पास और नहीं हैं......बाकी के रुपये क्या मैं मेरे बच्चे बेचकर लाऊं ?"

सामने बैठे भक्त स्तब्ध होकर सुने जा रहे थे। तभी एक भक्त ने सौ रुपए निकाल के पंडित जी को क्या दिये धीरे धीरे सभी लोगों ने सामर्थ्य अनुसार पंडित जी के बकाया पैसे चुका दिये।

अब पंडित जी और प्रबन्धक दोनों शांत नजर आ रहे थे। पंडित जी ने आरती पूर्ण की और प्रसाद वितरण भी किया।

लेकिन रामप्रसाद निर्णय नहीं कर पाया की जब धर्म विरक्ति पैदा करता है, सांसारिक मोह माया से दूर करता है ...तो भगवान और भक्ति के बीच रुपए पैसे कहाँ से आ धमकते हैं ?

रामप्रसाद ने लौटते समय अपनी माँ से पूछा " माँ, जरा एक बात तो बता, पंडित जी और प्रबन्धक में से गलती किसकी रही ?"

माँ से मुसकुराते हुये जवाब दिया " घर जाये के दिन गिने या दाँत...............बेटे, तू क्या यही देखने गया था?

***   ***   ***

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Comments
15 Comments
15 टिप्पणियां:
  1. ajkal panditji ka dhyan katha mein kam charava per jyada rehta hai

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  2. कथनी और करनी का अंतर यहाँ स्पष्ट नजर आता है. प्रभाव शाली कहानी.

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  3. बहुत सुन्दर..आज धर्म भी एक व्यापार हो गया है..

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  4. अर्थपूर्ण कथा...... घर जाये वाली कहावत बड़ी आम है राजस्थान में.....आज कहानी में पढ़कर अच्छा लगा

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  5. .

    हर चीज़ को commercialize कर दिया गया है । भक्ति भी नहीं बची इस बाजारीकरण से।

    गलती न तो पंडित की थी , न ही प्रबंधक की ।

    गलती है अन्धविश्वासी जनता की , जो भक्ति का अर्थ इन आयोजनों को समझती है । " मन चंगा तो कठौती में गंगा " । माइक पर प्रवचन करने से भक्ति की गुणवत्ता नहीं बढती।

    अन्धविश्वासी और भोले भक्तजन यदि इन लालची पंडितों और आयोजकों को देने के बाजाये , यही रूपए किसी गरीब के इलाज में देते, किसी भूखे को खाना खिलाने में खर्च करते या फिर किसी मासूम , गरीब बच्चे को , जो हसरत से खिलौने की दूकान के बाहर खड़ा चुपचाप उसे निहार रहा है उसे एक bat-ball दिला देते , तो असली भक्ति होती ।

    आजकल जागरूक राम्प्रासाद तो मिलते हैं , लेकिन मुस्कुरा कर टाल जाने वाली माएं , बच्चों का सही मार्गदर्शन नहीं कर रही हैं।

    .

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  6. आज ऐसी स्थिति है तभी तो लोग धर्म पर आस्था नहीं रखते ...

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  7. आपकी ये लघु कथा सोचने के कई आयाम खोलती है ... सच में दोष किसका है ... समाज का .. व्यवस्था का ... या खुद का ...

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