रोज बात बात पर,
नई फाइल,
पुरानी को कोसती है,
पुरानी फाइल जिसकी,
गुम हुई पहचान,
अलमारी में भी,
मन ही मन,
अपना कसूर तलाशती है,
नयी रौब से कहती,
मैं, "रीक्र्यूट्मेंट" फाइल,
"सैलरी फाइल" की साली हूँ,
मुजसे डर क्योंकि,
मैं, रोज बड़े साहब से,
मिलकर जो आती हूँ,
तू ठहरी पुरानी फाइल,
राज भाषा हिन्दी वाली,
बीत चला तेरा वक़्त,
"बापू" की तरह,
मुजमें गर्मी देख,
"हरे" की तरह,
तूने कभी कडक नोट पर,
क्या, बापू की मुस्कुराहट देखी है,
एक बात और,
तेरे उस बाबू से,
जिसकी गर्दन बंधी है,
रद्दी की टोकरी से,
जिंदगी रेंगती जिसकी,
बैंक के उधार से,
नौकरी उसकी बस,
मेरे साहब की कलम से,
मेरी शिकायत करने की,
भूल मत करना
वरना....................................,
मेरी पहुँच ऊपर तक,
तेरे इस बेजान बाबू की नौकरी,
मैंने बड़े सस्ते में जाते देखी है।
◘◘◘
◘◘◘







अरविन्दजी ,फाइल के बहाने आपने भ्रष्टाचार पर तीखा कटाक्ष किया है, एक सशक्त रचना के लिये बधाई!
जवाब देंहटाएंवाह, आपने बढ़िया लिखा है ... एक कसाव है लेखन में !
जवाब देंहटाएं... bahut khoob !!!
जवाब देंहटाएंऔर इन सबके बीच पिसता आम आदमी। अफसोसजनक!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंफाईलें अगर बोलती तो बिलकुल यही कहती ...
जवाब देंहटाएंदफ्तरी माहौल में भी कविता ने रंग जमाया है !
बहुत बढ़िया व्यंग्य है और माध्यम भी आप ने बहुत सटीक लिया है
जवाब देंहटाएंबधाई
हकीकत परक रचना .....सटीक.... आखिरी पंक्तियाँ कमाल बन पड़ी हैं....
जवाब देंहटाएंbahot achcha likha hai.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंwaah arvindji!
जवाब देंहटाएंbahut prbhavshali vyangy kavita...
filon ke madhyam se kah di baaten khari-khari!
sateek vyangya!
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