
हर दौर की काली रात गुजरी है,
रौशनी सदा के लिए जाती नहीं।
बाते तस्वीरों से कर लीजिए,
क्या नज़रों की जबां आती नहीं।
दिल बन बैठे पत्थर के जब से,
नमी अश्क की चेहरों पे आती नहीं।
सेक लो हाथ जलते आशियानों से,
फितरत आदमी की पुरानी जाती नहीं।
बन रहे हैं शहर दौलतवाले रोज,
अब आह दूर तलक जाती नहीं।
तेरा नाज सरेआम ना हो नसीब,
वो खता तो मुझको आती नहीं।
सूकून देता है महखाना जहां पीने,
बिना सच कोई जबां आती नहीं।
हो जाये अब तमाशा मेरा भी,
आदत "सच" की जो जाती नहीं।
चुकाना है हिसाब खुदा का भी,
कोई जात जहां काम आती नहीं।
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प्रेरणादायी पोस्ट!
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आपने सुन्दर रचना के माध्यम से सीख दी है!
आभार!
आदरणीय अरविन्द जांगिड जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई
सेक लिए जाये हाथ जलते आशियानों से,
जवाब देंहटाएंफितरत आदमी की पुरानी, जाती नहीं।
... sundar sher ... prasanshaneey gajal !!!
दिल बन बैठे, पत्थर के जब से,
जवाब देंहटाएंनमी अश्क की चेहरों पे,आती नहीं ..
बहुत खूब .. कमला का शेर है ... इन्सान सच में पत्थर का हो गया है ..
च्ुकाना है हिसाब खुदा का भी
जवाब देंहटाएंकोई जात जहां काम आती नहीं
सौ फीसदी सच है। लोग इतना समझ जाए तो स्वर्ग यहीं धरती पर उतर आएगा।
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जवाब देंहटाएंच्ुकाना है हिसाब खुदा का भी
कोई जात जहां काम आती नहीं.....
पूरा जीवन दर्शन समेट दिया इन पंक्तियों में आपने।
बेहतरीन अभिव्यक्ति अरविन्द जी ।
आभार।
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'ho jaye ab tamasha mera bhi
जवाब देंहटाएंadat sach ki jati nahi.'
. कमला का शेर है
जवाब देंहटाएं.....कमला का शेर है
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