कोई जात जहां काम, आती नहीं Koi Jaat Jaha Kaam Aati Nahi Poem
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcK5pu5CeYrVP2gRJGmZ5spelu-RqU7lL-yFrfVUi3cbOar53dIj3rv0zSa2FXDISEtI_aEJR-VgtvzBxu428OREHkR66-cqK6EvquwdeGM1WlR38P-ittclnPKioQUNaSWjkRcGY9RLFu/s640-rw/flower+art+2322.jpg)
हर दौर की काली रात गुजरी है,
रौशनी सदा के लिए जाती नहीं।
बाते तस्वीरों से कर लीजिए,
क्या नज़रों की जबां आती नहीं।
दिल बन बैठे पत्थर के जब से,
नमी अश्क की चेहरों पे आती नहीं।
सेक लो हाथ जलते आशियानों से,
फितरत आदमी की पुरानी जाती नहीं।
बन रहे हैं शहर दौलतवाले रोज,
अब आह दूर तलक जाती नहीं।
तेरा नाज सरेआम ना हो नसीब,
वो खता तो मुझको आती नहीं।
सूकून देता है महखाना जहां पीने,
बिना सच कोई जबां आती नहीं।
हो जाये अब तमाशा मेरा भी,
आदत "सच" की जो जाती नहीं।
चुकाना है हिसाब खुदा का भी,
कोई जात जहां काम आती नहीं।
***
***