खनक उठी ये फिज़ाएँ थी जो खामोश,
झूम के चली हवाएँ आपकी गलियों से।
हुआ नजरों का नशा तो होश आया,
बहकते नहीं कदम अब पीने से।
हाल-ए-बयां कैसे हो पल दो पल में,
एक गम है मेरा कई सदियों से।
कहने को तो बहुत है दिल में मेरे,
लेकिन क्या कहें अब एक अजनबी से।
गलियाँ पुरानी पूछती हैं एक सवाल,
कैसा वास्ता मेरा इस आग से।
साथ छोड़ा तुमने बीच सफ़र क्या,
हम रहे नहीं अब किसी सफ़र से।
नाज है हमको इस बात पर भी,
पाया चंद जुल्म हमने भी आप से।
उनको अचरज की हम जिंदा हैं,
शायद बाकी कुछ हिसाब अभी नसीब से।
देखूँ कब पिघलता है पत्थर दिल उनका,
आब-ए-चश्म की तासीर से।
आबाद रहें चमन दुश्मन का हर हाल,
उठती है दुआएँ यूँ कुछ टूटे दिल से।
चाहा तो था हमने जीना शरीफ़ बनके,
तंग नजर रहा हाथ की लकीर से।
"सच" रौशन करेगा आपकी यादें जलकर,
जब तलक गर्मी है साथ खून से।
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सुंदर प्रस्तुति है
जवाब देंहटाएंहुआ नजरों का नशा तो होश आया,
जवाब देंहटाएंबहकते नहीं कदम अब पीने से।
इसे यूँ कर दें .....तो....
हुआ नजरों का नशा तो होश गया
बहकते नहीं कदम अब पीने से।
वाह क्या बात है ......!!
'हुआ नज़रों का नशा तो होश आया,
जवाब देंहटाएंबहकते नहीं कदम अब पीने से ,
बहुत खूब !
सच ही रोशन रहेगा..
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी
जवाब देंहटाएंबहुत खूब कहा है ....लिखने को कुछ भी लिख देते हैं स्वर व्यंजन की भाषा में लेकिन ......आपकी रचना का क्या कहें ....शुक्रिया
सभी शेर खूब बन पड़े हैं.... सुंदर प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंक्या कहें अब एक अजनबी से ....
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति !