नया कानून बना है संसद में,
सच बोलना भी अब भ्रष्टाचार है।
जहां डाल डाल एक राजा बैठा,
ये तो हमारी भारत सरकार है।
लड़ते हैं संसद में नेता हमारे,
खाते मिल बाँट अजीब तकरार है।
श्रीमान कसूर वक़्त का नहीं,
हँडिया एक चमचे हजार हैं।
जागो देश हुआ खोखला अब तो,
गेहूँ कम घुनों की भरमार है
बच्चा पूछता अखबार देख पापा ये क्या,
बेटे तेरे काम की नहीं, ये खान निगार है।
पढ़ा की गरीबी छोड़ गई देश सदा को,
सुना की सरकार और अखबार में हुआ करार है।
घर के पिछवाड़े पड़े बुड्ढे बतलाते आपस में,
चुप रहिए जी, इज्जत बुजुर्गों की अब तार तार है।
सड़क पर लाश देख आँख मीच लेता,
आज का आदमी भी कितना लाचार है।
कल एक आदमी सच बोल गया सरे आम,
छोड़िए जनाब उसकी तो बुद्धि ही खराब है।
एक रोज जाग जाएंगे सोये देवता,
हमें बस अब इसी का इंतजार है।







आदरणीय अरविन्द जांगिड जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
एकदम सत्य
बहुत प्रेरणा देती हुई सुन्दर रचना ...
... चित्र भी बहुत सुन्दर लगाया है.
वर्तमान हालत पर सटीक हैं आपकी यह पंक्तियाँ ....हालत को खूब पहचाना है आपने ....आज कल हमसे खफा हैं क्या ...शुक्रिया
जवाब देंहटाएंआजकल के हालातों पर सटीक.
जवाब देंहटाएंकविता में दुःख भी है , आक्रोश भी , समाज की बदहाल स्थिति पर भरपूर व्यंग भी । अखबार और सरकार के बीच कारार जैसी दुखद स्थिति।
जवाब देंहटाएंहम भी इसी दिन की रह देख रहे हैं!
जवाब देंहटाएंआपकी गजल ने आशा जाग्रत की है!
बहुत ही सटीक और सार्थक व्यंग..हर पंक्ति लाज़वाब..
जवाब देंहटाएंसटीक ... सार्थक व्यंग है ... सच है आज का मानव लाचार है अपने ही हाथों बीमार है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक और सार्थक व्यंग..हर पंक्ति लाज़वाब..
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