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मेला Mela


मैंने दादा (वही लंगडपेच वाला दादा जो कमरा बंद करके हुक्का पान करता है) से पूछा "दादा आज जोड़ी (जूतियों की जोड़ी) बाहर से ही चमक रही हैं, नयी लगती हैं, सासरे (ससुराल) वालों से लाया है क्या"
दादा ने मेरी और खार खाये हुये पाडे (भैंसा) के तरह देखकर कहा "पूरे पाँच सौ दिये है, मेले से लाया हूँ......खरीद कर...किसी का अहसान नहीं है मुझ पर।"

"दादा मैंने तो ऐसे ही पूछ लिया था......जाने दे.....ये बता की मेले में क्या क्या देखा" मैंने पूछा।

दादा लंबी गुड़गुड़ खींच के बोला  "मेले का क्या है, लोग आते हैं... अपनी अपनी दुकान लगाते हैं, एक दिन मेला खत्म सब वापस लौट जाते हैं, कोई खुश होकर, कोई दुखी होकर जाता है...........देख जाना तो सबको है एक दिन, अब तो भगवान मुझे भी उठा ले तो ठीक है............साथ वाले सब गए, मैं ही बचा हूँ, बस "

हो सकता है दादा थोड़ा "फिलोसोफिकल" बोल गया हो, लेकिन बोला एकदम सच। ये जीवन भी तो एक मेले से ज्यादा नहीं है। मेले में आकर हम भूल जाते हैं की यहाँ किसलिए आए थे, जब तक मेला चलता है, पता ही नहीं चलता है। मेले की चकाचौंध में उद्देश्य विश्मृत होने लगता है। एक दिन मेला खत्म हो जाता है। मेला खत्म होने पर जाना तो एक दिन सबको ही होता है, भले ही कोई राजा हो या रंक, यहाँ सदा कौन रहने वाला है।