अंधेरा...बस अंधेरा ! Andhera Bas Andhera Poem
जब कभी मन नहीं लगता,
तो मैं बाहर निकल पड़ता हूँ,
मगर सच कहूँ तो,
एक अजीब से फासले के साथ,
ये मैंने नहीं बनाया,
तो फिर किसने बनाया,
मुझे कुछ पता नहीं,
हाँ, मगर कोई बात तो है,
जब भी मैं बोलता हूँ,
कुछ डरा सा रहता हूँ,
हाँ, ज्यादातर चुप ही रहता हूँ,
इसमे मेरी कोई गलती नहीं,
लोग सोच कर बोलते हैं,
समझ कर बोलते हैं,
और 'तौल' कर बोलते हैं,
उनके पास तराजू हैं,
कई तराजू हैं उनके पास,
मगर मेरे पास एक भी नहीं,
एक बार मैं उस तराजू को घर लाया था,
मगर जब भी मैंने तराजू की बाते मानी,
लगा जैसे अंदर कुछ टूट रहा हो,
बरसों का साथी कोई छूट रहा हो,
फिर मैंने उस तराजू को खुद ही तोड़ डाला,
उन लोगों से मिलकर कुछ खुशी होती है,
जिनके पास कोई तराजू नहीं,
सच मैं खुशी होती है.....,
यूँ तो शहर में कई तराजू बिकते हैं,
सबका अपना अपना,
मगर कोई 'सबका' नहीं,
कही ऐसा तराजू जो हो 'सबका',
अब तो बस उसे ही ढूंढता रहता हूँ,
'सच' तो ये है की वो लोग,
जो तराजू वाले हैं,
वो रौशन हैं.....,
मगर उनके अंदर है,
अंधेरा...बस अंधेरा !