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गुस्सा Gussa


गुस्सा आना अपने आप में एक प्राकृतिक (नेचुरल)  प्रक्रिया है, इसलिए यदि किसी व्यक्ति को किसी बात पर गुस्सा ही न आये तो  इससे यही बोध होता है की अमुक व्यक्ति इस संसार से ऊपर उठ चुका है या कहना चहिये की उसे इस संसार की बातों से कोई लेना देना ही नहीं है।  वास्तव में इस प्रकार का व्यक्ति तमाम तरह की बातों से ऊपर ही होता है।  गुस्सा आना तो प्राकृतिक होता है लेकिन गुस्से में स्वय पर से नियंत्रण खो देना समझदारी नहीं होती और न ही व्यावाहारिक ही होती है। विज्ञान की दृष्टि से गुस्सा आने पर शरीर में आंनडरीनल हार्मोन का प्रवाह अप्रत्यासित रूप से बढ़ जाता है। इसके परिणाम स्वरुप कपकपी छुटना घूरना, आँखे लाल हो जान, विवेक खो देना आदि लक्षण दिखाई देते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है की गुस्सा तो स्वंय के ही विनाश का कारण है। जब  गुस्सा आता है तो बुद्धि के द्वार स्वतः ही बंद हो जाते हैं।

गुस्सा अपने आप में  कुछ और न होकर तनाव का स्थूल रूप होता है। कह सकते हैं की जब धरती में आक्रोश, घुटन बढ़ जाती है तो उसका प्रकटीकरण ज्वालामुखी, आंधी, तूफ़ान  के रूप में होता है। उसी प्रकार मनुष्य के जीवन के  छोटे छोटे तनाव एंव असंतोष का स्थूल रूप ही गुस्सा होता है।

जीवन में तनाव आने के कई कारण हो सकते है लेकिन जो मूल कारण है जीवन के प्रति भौतिकतावादी दृष्टिकोण। जो व्यक्ति जितना ज्यादा भौतिक होगा वह उतना ही ज्यादा असंतोष एव आक्रोशित भी होगा। 
स्वंय  से एवं  दूसरों से एक सीमा से ज्यादा उम्मीद रखना भी असंतोष का कारण  बनता है, मसलन यदि मैं किसी व्यक्ति से कोई आशा रखू तो आशा के अनुरूप परिणाम नहीं आने पर आक्रोशित होना स्वाभाविक ही है।
सबसे महत्वपूर्ण है की क्यों नहीं हम अपने आप को उस अपार, गुणातीत शक्ति के करीब लाए जिसके पास आने मात्र के विचार से ही चित्त में असीम शांति का अनुभव होता है। जो व्यक्ति इश्वर के जितना ज्यादा करीब होगा वह उतना ही तनाव से दूर होगा।

यदि कोई व्यक्ति किसी के कुछ कहने मात्र से ही आक्रोशित हो जाता है तो यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है की वह ईश्वर से अभी दूर ही है। इस संदर्भ में एक किस्सा कुछ इस प्रकार से है-
एक बार किसी गांव से एक साधु गुजर रहा था।  गाँव के बारे में जानकारी के अभाव के कारण वह उसी गाँव के मुखिया के ही खेत में विश्राम करने के लिए रुक गया।  गाँव के मुखिया को इसका पता चलने पर वह आग बबूला होकर साधू से कहने लगा की उसने इस खेत में रूकने का दुस्साहस कैसे किया एंव साधु को गालियाँ निकालने लगा। 

आख़िरकार जब मुखिया ने देखा की उसके व्यवहार का साधु पर कोई असर होता दिखाई नहीं दे रहा है तो उसने साधु से पूछा की कहीं वो बहरा और गूंगा तो नहीं है ?  साधु  ने सहज स्वभाव से उत्तर दिया की ना तो वह गूंगा है और न ही बहरा,  मगर मुखिया जरूर अंधा है । साधु ने मुखिया से कहा की "तुम्हे जो अपना दिखाई दे रहा है, क्या वह तुम साथ लाए थे ?  तुम्हारे साथ क्या जाएगा ?  कुछ नहीं...!  फिर ये खेत तुम्हारा कैसे हुआ ? जब तुम  रोज देखते हो की तुम्हारे गाँव से कोई न कोई इस नश्वर देह को छोड़ कर जा  रहा है और एक दिन तुम्हारी भी बारी आनी है, फिर इस जमीन के टुकड़ों से कैसा मोह तुम्हे बना रखा है ?...  न तुम  कुछ लेकर आये थे और  न कुछ लेकर जाओगे,  मानव ने ही धरती माँ को टुकडो में बाट रखा है, वरना क्या तेरी क्या मेरी ? अपने मन की आंखे  खोलकर देखो सब यही रह जाना है। और  रही बात अपशब्द के जवाब की तो वह तो तुमने मेरी इस देह को निकाली है, जो मेरी है ही नहीं।   आत्मा में तो ईश्वर का वाश होता है,  उस पर तुम्हारी गालियों का कोई असर नहीं पड़ने वाला। " इतना कहकर जब साधु जाने लगा तो वह मुखिया पर साधु की बातों का ऐसा असर हुआ की वह भी सब कुछ छोड़ कर साधु के  पीछे  हो लिया। 

अभिप्राय स्वतः ही स्पष्ट  है की यदि कोई हम से भला बुरा भी कहता है तो वह हमें नहीं इस स्थूल शरीर को कह रहा है, "हमें" नहीं।

इसलिए हमें जीवन में आध्यात्म का महत्त्व स्वीकार करना होगा। जैसे - जैसे हम ईश्वर के समीप होते जायेंगे वैसे - वैसे हम सांसारिक मोह माया और इससे जुडी तमाम समस्याओं से भी निजाद पाते चले जायेंगे ।


       दर्द-ए-दिल का यूँ इजहार न कर