
पुरातन गवाहों से,
अमर प्यार को शापित कर,
मंदिर को मस्जिद से लड़ा चले,
ये हम कहाँ चले।
क्षेत्रवाद नहीं,
रास्ट्रवाद के नाम पर,
कितना खून मासूमों का,
यू ही हम बहा चले।
ये हम कहाँ चले।
ना बापू रहा,
ना उसके सिद्धांत,
उनको तो बेच हम,
अग्रेजी को खरीद चले,
ये हम कहाँ चले।
जीवन बना,
सबका "निजी"
मदद को चिल्ला रहा कोई,
पड़ा सड़क पे,
आँख मीच हम चले
ये हम कहाँ चले।
आए जहां से,
फिर वहीं जाना है,
बिना किसी पहचान के,
शायद ये हम भूल चले,
ये हम कहाँ चले।
(क्रमशः)







यही तो पता नही
जवाब देंहटाएंआपकी चिन्ता ज़ायज़ है ! हमें नहीं मालूम कि हम किस भविष्य की ओर जा रहें हैं ! "गीता को कुरान से बु आती है, रम को रहीम से बु आती है ! अफ़सोस हम ऐसे समाज़ में रहते हैं जहां इन्सान को इन्सान से बु आती है !"
जवाब देंहटाएं... prasanshaneey rachanaa !!!
जवाब देंहटाएंham apni insaniyat ko bhool chale...
जवाब देंहटाएंswasth chintan ki sundar rachna.
आपकी इस सुन्दर और सशक्त रचना की चर्चा
जवाब देंहटाएंआज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
http://charchamanch.uchcharan.com/2010/12/375.html
मार्मिक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंपता नही कहाँ चले जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसच ! दिशाहीन हमारी चेतना कहाँ जा रही है...
जवाब देंहटाएंसटीक अभिव्यक्ति!
सच कहा ... कहाँ से आये कहाँ जाना है ... ये बात भूल जाते हैं हम ....
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन । अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रश्न है...
जवाब देंहटाएंये हम कहां चले...
चिंतन करने को विवश करती प्रशंसनीय रचना।
आपकी चिन्ता ज़ायज़ है !
जवाब देंहटाएंआत्म मंथन करने का प्रयास ...अच्छी प्रस्तुति
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