लहलहाती हैं फसले खेतों में,
दाना चिड़ियों को मयस्सर नहीं।
परिंदे यूं हैं शामिल उड़ानों में,
ना कतरवाए पर वो परिंदा नहीं।
धुल गए शहर के शहर बरसात में,
मन का है एक मैल जो धुलता नहीं।
जमाना छिपाता है चेहरे नजरों में,
नज़रों से मगर कुछ छिपता नहीं।
घर जला तो यकी हुआ जमाने को,
वो आग ही थे कोई रहबर तो नहीं।
जीने लगे खामोश चारदिवारी में,
जमाने को मुझसे अब शिकायत नहीं।
किससे करें फरियाद अब आखिर,
सोये देवता चढ़ावे से जागते नहीं।
कैसे बिसरा दे यादें हम सितमगर,
इनके सिवा कोई अपना भी नहीं।







आदरणीय अरविन्द जी
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम
आपकी गजल जीवन -और इससे जुड़े पहलुओं की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती है ....बहुत सुंदर और अर्थपूर्ण है हर एक शेर ...शुक्रिया
आदरणीय अरविन्द जी
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम
आपकी गजल जीवन -और इससे जुड़े पहलुओं की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती है ....बहुत सुंदर और अर्थपूर्ण है हर एक शेर ...शुक्रिया
जमाना छिपाता है चेहरे नजरों में,
जवाब देंहटाएंनजर है की कुछ, छिपाती भी नहीं।
बहुत ही सुन्दर भावमय करते शब्द ।
har sher jindgi ki talkhiyon se rubaroo kara raha hai .
जवाब देंहटाएंकैसे बिसरा दें यादें हम सितमगर
जवाब देंहटाएंइनके सिवाय कोई अपना भी नही !
बहुत सुंदर अंदाज !
बड़ी मुश्किल से पहचान में आते हैं अपने और पहचान में आ जांय तो सहेज लें तुरंत.
जवाब देंहटाएं... bahut khoob ... behatreen !!
जवाब देंहटाएंSimply fantastic. I am impressed a lot. I enjoyed reading it.
जवाब देंहटाएंJiwan ko paribhashit karati hui sundar abhivyakti
जवाब देंहटाएंजमाना छिपाता है चेहरे नजरों में,
जवाब देंहटाएंनजर है की कुछ, छिपाती भी नहीं।
प्रभावी अभिव्यक्ति.....
bhawnatmak rachna
जवाब देंहटाएंयथार्थ है.
जवाब देंहटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति
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