ऊधो जो अनेक मन होते भारतेन्दु हरिश्चंद Udho Jo Anek Man Hote
ऊधो जो अनेक मन होते भारतेन्दु हरिश्चंद Udho Jo Anek Man Hote ऊधो जो अनेक मन होते भारतेन्दु हरिश्चंद Udho Jo Anek Man Hote
ऊधो जो अनेक मन होते भारतेन्दु हरिश्चंद Udho Jo Anek Man Hote
ऊधो जो अनेक मन होतेतो इक श्याम-सुन्दर को देते, इक लै जोग संजोते।
एक सों सब गृह कारज करते, एक सों धरते ध्यान।
एक सों श्याम रंग रंगते, तजि लोक लाज कुल कान।
को जप करै जोग को साधै, को पुनि मूँदे नैन।
हिए एक रस श्याम मनोहर, मोहन कोटिक मैन।
ह्याँ तो हुतो एक ही मन, सो हरि लै गये चुराई।
'हरिचंद' कौउ और खोजि कै, जोग सिखावहु जाई॥
लेखक - भारतेन्दु हरिश्चंद
भारतेन्दु हरिश्चंद्र (अंग्रेज़ी: Bharatendu Harishchandra) (जन्म - 9 सितंबर 1850 से मृत्यु 6 जनवरी 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। हिंदी साहित्य में उनका योगदान अमूल्य है। भारतेन्द्र के काव्य में भक्ति एंव श्रृंगारयुक्त रचनाओं की प्रधानता हैं। उन्होंने सामाजिक समस्याओं के उन्मूलन की बात सर्वप्रथम कही। भारतेन्दु जी ने अपनी प्रतिभा के बल पर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी।
भारतेन्दु के वृहत साहित्यिक योगदान के कारण ही १८५७ से १९०० तक के काल को भारतेन्दु युग के नाम से पहचाना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, भारतेन्दु अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो पद्माकर, द्विजदेव की परम्परा में दिखाई पड़ते थे, तो दूसरी ओर बंग देश के माइकेल और हेमचन्द्र की श्रेणी में।पंत जी ने इनके बारे में ठीक ही कहा है-
भारतेन्दु कर गये,
भारती की वीणा निर्माण।
किया अमर स्पर्शों में,
जिसका बहु विधि स्वर संधान।
काव्य-कृतियाँ :
भारतेन्दु के वृहत साहित्यिक योगदान के कारण ही १८५७ से १९०० तक के काल को भारतेन्दु युग के नाम से पहचाना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, भारतेन्दु अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो पद्माकर, द्विजदेव की परम्परा में दिखाई पड़ते थे, तो दूसरी ओर बंग देश के माइकेल और हेमचन्द्र की श्रेणी में।पंत जी ने इनके बारे में ठीक ही कहा है-
भारतेन्दु कर गये,
भारती की वीणा निर्माण।
किया अमर स्पर्शों में,
जिसका बहु विधि स्वर संधान।
काव्य-कृतियाँ :
- भक्त-सर्वस्व (1870)
- प्रेम-मालिका (1871)
- प्रेम-माधुरी (1875)
- प्रेम-तरंग (1877)
- उत्तरार्द्ध-भक्तमाल (1876-77)
- प्रेम-प्रलाप (1877)
- गीत-गोविंदानंद (1877-78)
- होली (1879)
- मधु-मुकुल (1881)
- राग-संग्रह (1880)
- वर्षा-विनोद (1880)
- विनय प्रेम पचासा (1881)
- फूलों का गुच्छा (1882)
- प्रेम-फुलवारी (1883)
- कृष्णचरित्र (1883)