वैसे तुम हो किस जात के Vaise Tum Ho Kis Jat Ke Short Story
वक़्त बदल रहा है, बहुत कुछ बदल भी गया है, फिर भी ना जाने क्यों कुछ लोगों का पुराने से मोह भंग नहीं होता। इसके जो भी कारण हों, ऐसे लोग ना केवल स्वंय बल्कि दूसरों को भी प्रदूषित कर रहे हैं।
जरा एक किस्सा सुनिए, मैं अपने मित्र की शादी में सरीक होने जा रहा था, बस में भीड़ तो नहीं थी लेकिन सीट भी कोई खाली नहीं थी। मैंने गौर से देखा की एक सज्जन, जो लग भी सज्जन जैसे ही रहे थे, माने की पढे लिखे...माथे पर चन्दन का तिलक...वे दो की सीट पर अकेले ही पसर के बैठे थे। मैंने पास जाकर कहा की "श्रीमान जी, यदि आपको बुरा ना लगे तो मैं भी बैठ जाऊ। उसने बिना कुछ जवाब दिये मुझे थोड़ी सी सीट बैठने को दे दी, लेकिन जगह भी इतनी सी दी की मैं ना तो सीट पर था और ना ही खड़ा ही। थोड़ी देर बाद मैंने उन सज्जन से फिर कहा "भाई साहब, थोड़ा सा ओर खिसकिए.....देखिये मैं पूरा बैठ भी नहीं पा रहा हूँ।" वे सज्जन इस पर बोले "अब क्या पूरी बस ही दे दु तुझको....सो के जाएगा इसमें.....जगह दे दो।"
खैर........ मैंने अपनी किताब निकाली और पढ़ने लगा। सफर बीत रहा था, बस चले जा रही थी और कई स्टेशन पीछे छूटते जा रहे थे। काफी समय बाद उन सज्जन ने मुझको कहा की "इस रोडवेज में जो कंडेक्टर है न वो मेरी सगी भुआ का लड़का है...........हम श्याम जी के मंदिर के दर्शन करने जा रहे है...............वैसे तुम हो किस जात के ?... ......क्या काम करते हो.....?"
मैंने किताब बंद करके कहा, "मैं कुछ खास नहीं करता......बस नगरपालिका से मरे हुये जानवर खरीद कर उनकी खाल उतारने का धंधा है..... और मेरी जात.......।" मैंने अपनी बात पूरी भी नहीं की होगी की वे सज्जन तुरंत अपनी सीट छोड़कर कंडेक्टर के पास वाली सीट पर जा बैठे......उनके चेहरे पर ऐसे भाव थे मानों साक्षात यमदूत से मिलकर आए हों.....और मैं तो मजे से पूरे सफर अकेला ही सीट पर बैठने का आनंद उठाता रहा।