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"बेटे, तू क्या यही देखने गया था" Bete Tu Kya Yahi Dekhne Gaya Tha Hindi Short Story


एक रोज रामप्रसाद की माँ ने कहा की पड़ौस के कस्बे में भागवत कथा का समापन होने जा रहा है और उन्हे प्रसाद ग्रहण करने को साथ में चलना चाहिए।

रामप्रसाद अपनी माँ का बहुत आदर करता था, सो उसने ना चाहते हुये भी हामी भर ली।  भागवत कथा में पहुँचने पर कुछ ऐसा गठित हुआ जिसे देखकर रामप्रसाद सुन्न हो गया। व्यास पीठ से आए पंडित जी ने मंच पर ही बोल दिया "अरे मंदिर के प्रबन्धक को बुला के लाओ, काफी देर से उसका नाम पुकार रहा हूँ, आ ही नहीं रहा है सामने।"

प्रबन्धक के आने पर पंडित जी ने आक्रोशित होकर कहा " क्यों भाई ! तुमसे बात तो 11 हजार की हुयी थी, अब तुम दे आठ हजार ही रहे हो, इन माईक वालों के पैसे कौन चुकाएगा। मैं तो पंडित हूँ, मेरे पास क्या हैं इन्हे देने के लिए.....इतने से काम नहीं चलने वाला, बाकी के रुपये भी दो....।"

प्रबन्धक हाथ जोडते हुए कहने लगा.... " पंडित जी, चढ़ावे में जितना भी रूपया पैसा आया है सब जोड़ कर आपको दे दिया है.....अब मेरे पास और नहीं हैं......बाकी के रुपये क्या मैं मेरे बच्चे बेचकर लाऊं ?"

सामने बैठे भक्त स्तब्ध होकर सुने जा रहे थे। तभी एक भक्त ने सौ रुपए निकाल के पंडित जी को क्या दिये धीरे धीरे सभी लोगों ने सामर्थ्य अनुसार पंडित जी के बकाया पैसे चुका दिये।

अब पंडित जी और प्रबन्धक दोनों शांत नजर आ रहे थे। पंडित जी ने आरती पूर्ण की और प्रसाद वितरण भी किया।

लेकिन रामप्रसाद निर्णय नहीं कर पाया की जब धर्म विरक्ति पैदा करता है, सांसारिक मोह माया से दूर करता है ...तो भगवान और भक्ति के बीच रुपए पैसे कहाँ से आ धमकते हैं ?

रामप्रसाद ने लौटते समय अपनी माँ से पूछा " माँ, जरा एक बात तो बता, पंडित जी और प्रबन्धक में से गलती किसकी रही ?"

माँ से मुसकुराते हुये जवाब दिया " घर जाये के दिन गिने या दाँत...............बेटे, तू क्या यही देखने गया था?