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तू, आप और आत्मीयता Tu Aap Aur Aatmiyata

 
किसको "आप" लगाकर संबोधित करें और किसे "तू" यह तो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। हिंदी भाषा में "आप" सम्माननीय व्यक्तियों के लगाया जाता है और "तू" को हम उस व्यक्ति को संबोधित करने के लिए लगाते हैं जो या तो सम्मान का हकदार नहीं है या फिर जिसे सम्मान देना ही नहीं है। "तू" को हम उस व्यक्ति के सम्बोधन में भी लगा देते हैं जहाँ उससे हमारी घोर "आत्मीयता" हो। मगर न जाने क्यों मुझे 'तू' 'आप' और आत्मीयता में एक तरह का घालमेल नजर आता है। इसके कारण कुछ व्यक्तिगत भी हैं। मुझको अच्छा नहीं लगता जब मैं सभी को आप लगाकर संबोधित करता रहूँ और लोगबाग मुझे बार बार 'तू' कहते रहे। ऐसा किसी के भी साथ होने पर गुस्सा आना तो लाजिमी ही है। जब मैं सांसारिकता छोड़कर सोचता हूँ, कि कोई मुझे 'तू' कहे या 'आप' इससे क्या फर्क पड़ने वाला है, सभी जीव ईश्वर कि संतान हैं। कोई छोटा या बड़ा केवल सम्मान जनक सम्बोधन से ही नहीं होत है। असम्मान शरीर का हो सकता है 'आत्मा' का नहीं। आत्मा और परमात्मा का सम्मान या असम्मान से कोई लेना देना नहीं। जीवात्मा तो अजर, अमर और प्रकाशवान होती है, वो तमाम तरह कि परिभाषाओं से परे है। तभी मन
में एक और जाना पहचाना विचार कौंधता है नहीं....नहीं.....मैं कोई संत या महात्मा नहीं ....जो निरंतर अपमान सहने के बावजूद सम्मान प्रदर्शित करूँ। घूम फिर कर लोग मुझे ही मुर्ख समझेंगे। संसार में रहकर सांसारिकता छोड़ना इतना आसान कार्य नहीं जितना दिखता है।


अगर आप 'आप' 'तू' और 'आत्मीयता' के इस घालमेल से इतिफाक नहीं रखते तो जरा मेरे अजीज दोस्त रामप्रसाद को ही ले लीजिए। रामप्रसाद जिस कार्यालय में काम करता है, वहाँ के कार्यालयाध्यक्ष, श्रीमान शर्मा जी, के बालों पर पसरी निरी सफेदी पर जाएं तो आप उन्हें बुजुर्ग समझने कि भूल कर बैठेंगे और स्वाभाविक रूप से उन्हें "आप" लगाकर संबोधित करेंगे। मगर शर्मा जी भी बड़े 'फिट' हैं आज के ज़माने के मुताबिक, वो बड़ी ही चतुराई के साथ प्लास्टिक पेन्ट से बालों को रंगते हैं, मजाल कि कोई बाल सफ़ेद नजर आ जाए। कार्यालय में एक औरत, पति के देहांत हो जाने के कारण अनुकम्पा आधार पर चपरासी लगी है और उसकी उम्र है लगभग पचास के आसपास। शर्मा जी उस विधवा औरत को तू लगाकर बुलाते हैं। उमर का तकाजा शायद अब रहा नहीं। मगर जब कोई नयी नवेली मैडम, जो जींस पहनकर, सज धज कर, बच्चों को पढाने को ऐसे चली आती हैं मानो खुद कि शादी करवाने आई हो, शर्मा जी झट से खड़े होकर कहने लगते हैं "आईये आईये मैडम जी....आजकल तो "आप" हमारे पास आते ही नहीं....अरे नहीं "आप" वो प्लास्टिक कि कुर्सी तो मुझे दे दीजिए.....उस पर जब "आप" बैठेंगे तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा...बराय मेहरबानी आप मेरी सरकारी गद्देदार सीट पर तशरीफ़ रखिये....और सुनाइये कई दिनों से आपका कोई फर्जी यात्रा भत्ता बिल नहीं आ रहा......क्या हमसे कोई नाराजगी है ?.... लीजिए 'आप' तो ये बिसलरी का पानी पीजिए, इसको मैं अपनी पत्नी के गहने बेच कर खास आपके लिए अमरीका से मंगाकर रखा हूँ.....।" विधवा औरत भी कार्यालय के बाहर बैठकर जाने क्या सोचती होगी, शर्मा जी कि बाते सुनकर। शर्मा जी, जब बड़े साहब से मिलने जाते हैं, जो उनसे उमर में काफी छोटे हैं, उनको "आप" लगाकर संबोधित करते हैं। शायद बड़े साहब का वो "आत्मीयता" से सम्मान करते हों... या फिर उनसे डरते हों... जैसे कि कहीं देरी से आने के कारण आधे दिन का अवकाश न चटका दें, दूर दराज इलाकों में तबादला न कर दें। 'भय बिनु होत न प्रीत गुसाई' । कुछ तो आज के युवा मुझ जैसे हो गए हैं और कुछ बुजुर्गों के कार्य भी अब सम्मानजनक नजर नहीं आते। कुछ तो घास चिकनी है और कुछ कुल्हाड़ी भी भौंटी है ( धार नहीं है )। मगर एक बात तो आईने कि तरह साफ़ है कि बुजुर्गियत का सम्मान साफ़ समझो अब।


एक शब्द है "आत्मीयता" ये मुझे काफी परेशान करता आया है। कुछ साफ़ साफ़ नजर नहीं आता। इसमें भी जरुर कोई न कोई घपला तो है। देखिये, पति और पत्नी का सम्बन्ध आत्मीय होता है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। बिना आत्मीयता के रिश्ता निभ नहीं सकता। आत्मीयता हो भी क्यों नहीं, सात जन्मों का नाता जो ठहरा। दोनों को जोड़े के लिए ईश्वर छांटता है। ईश्वर के पास दूसरा कोई काम धंधा तो है ही नहीं, वो तो बेला (ठाला) बैठा है....बस जोड़े ही छाँटता रहता है। वो ही जोड़ा जिसे कभी ईश्वर ने अपने हाथों से छांटा था वो कचहरी में एक दूसरे के आमने सामने हो जाता है तब लगने लगता है कि शायद ईश्वर ने इस जोड़े को कुछ जल्दबाजी में गलती से छांट लिया होगा। मगर क्या ईश्वर से भी कभी कोई गलती हो सकती है भला ? बात कुछ समझ में बैठी नहीं....या फिर अपनी समझदानी ही इतनी छोटी है कि इतनी बड़ी बात को समझने का पावर ही नहीं! कोई भी धर्मशास्त्री इसका कारण झट से बता देगा, सुनार कि तकड़ी से पचास किलो कि बोरी तौलने चले हो भैया ! पहले अपनी 'पात्रता' को तो बढाओ...ये तुम्हारे बूते कि बात नहीं..बड़े आये ईश्वर के कामों में गलती निकालने वाले....खुद को पहचान ही नहीं पाए और बात करते हो ईश्वर को पहचानने कि ? खैर जाने भी दीजिए, अभी इस बात को समझने का सामर्थ्य मुझ में तो नहीं, मगर पत्नी के लिए पति ही भगवान होता है...या भगवान का रूप होता है .... या फिर भगवान से मिलता जुलता कुछ.....कुल मिला कर पति पूजनीय होता है, पत्नी के लिए, करवा चौथ का अखंड उपवास शायद इसके प्रमाण के लिए काफी है। पत्नी अपने भगवान का आत्मीयता से आदर एंव सम्मान करती है और सम्बोधन में "आप" लगाती है। भगवान तुल्य पति, पत्नी को "तू" लगाकर संबोधित करता है, आत्मीयता के कारण । मगर क्या होता होगा जब पत्नी भगवान को "तू" कह डाले, सीधी सी बात है उसे भगवान के महाकोप का भागी होना ही पड़ेगा, मामला अगर गंभीर हुआ तो उसे अव्वल दर्जे का श्राप भी दिया जा सकता है। आप जरा सोचिये कि पति आत्मीयता दिखाए तो ठीक, पत्नी दिखा दे तो तौहीन..... हैं न घालमेल आत्मीयता में। जब बात आत्मीयता कि हो तो एक और उदहारण गौर करने लायक है। रामप्रसाद के गाँव के सरपंच चौधरी बाबा अब के चुनाव नहीं लड़ सकते क्यों कि सीट महिला कि आरक्षित जो है। चौधरी बाबा ने इसका भी एक इलाज निकाल लिया अपनी छोटे वाले चहेते पुत्र कि औरत को चुनाव में खड़ा करके, जिससे घर कि बात घर में ही रखी जा सके । इसमें भी एक विवाद आ ही गया....चौधरी बाबा के बड़े बेटे और उसकी पत्नी को इससे बहुत नाराजगी हुयी। बड़ा बेटा अचानक ही सारी आत्मीयता भुला बैठा और पार्टी कि बैठक में चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा "के बात बापू ...."तेरा" माथा खराब हो गया है क्या...मेरी पत्नी ज्यादा पढ़ी लिखी हैं और तेरी सेवा भी खूब करती थी.....तूने ये अच्छा नहीं किया......।" बड़े बेटे कि आत्मीयता अचानक ही सफाचट हो गयी। जो बेटा चालीस साल से अपने पिताजी को 'आप' कहकर पुकारता आया था, वो अपने बाप को तू कहने लगा ! बागी बन बैठा वो। और तो और उसने दूसरी पार्टी से अपनी पत्नी को सरपंची के लिए चुनाव में खड़ा कर दिया। पुत्रवधू भी छाती ठोक कर ससुरे के सामने खड़ी हो गयी।


जाने दीजिए हमें क्या लेना देना.....कोई सी भी लुगाई जीते या हारे। गाँव का विकास तो वैसे ही होना है जैसे कि होता आया है। चलो अच्छा हुआ जो मरने से पहले चौधरी बाबा का आत्मीयता वाला भरम तो टूट गया। सुना है अब चौधरी बाबा राजनीति नहीं बल्कि ईश्वर कि भक्ति करना चाहता है । देखा आपने कि "आप" सिर्फ उम्र के लिहाज से ही नहीं मिल जाता है। इसके लिए काफी जतन करने पड़ते हैं । क्या समाज में सर्वमान्य रूप से आदर पा चुके लोगों को सदा सम्मान मिलता है या नहीं। इस विषय पर तो सभी एक राय रखेंगे और वो सकारात्मक ही होगी। कल जब मैं ढाबे पर चाय पीने गया तो वहाँ बैठे कुछ मजदूर लोग ,पढ़े लिखे लोगों किनजर में जो शायद अकर्मण्यता कि वजह से गरीब थे या फिर उनके भाग्य में गरीबी ही लिखी थी, आपस में बतला रहे थे ".....सही मायनों में देश कि दुर्दशा का जिम्मेदार तो गांधी ही है........।" अगर गांधी जी आज जीवित होते तो मजदूर उनसे सम्मान के साथ बात नहीं करते। पढ़े लिखे लोगों में भी ऐसे लोगों कि कमी नहीं है जो गांधी जी के बलिदानों को भूल देश कि कि दरिद्रता एंव आफतों का कारण गांधी को मानते हैं। मसलन गांधी चाहता तो देश का बंटवारा टल सकता था....जिन्ना को तो गांधी ने ही बनाया था....पाकिस्तान को काफी धन गांधी जी ने ही दिलवाया था....। मगर वो शायद उस समय के हालात, मजबूरी से वाकिफ़ कुछ कम ही दिखते हैं। हो सकता है कि गांधी जी कुछ मायनों में दोषी ठहरा दिए जाएँ लेकिन पते कि बात ये है कि गांधी ने गलत या सही जो भी किया सो किया। वर्तमान में तो हम स्वतंत्र हैं न, तो कर लो विकास, हमें रोक कर कौन बैठा है या फिर अब भी गांधी का भूत देश के विकास में रौडे अटका रहा है। आज के नेताओं से बस्ती में एक हैंडपंप तो लगवा लो, तो पता चल जाएगा कि गांधी कितना गलत था। मैंने जब मजदूरों कि बातों से ध्यान हटाकर अखबार उठाया तो पढ़ा कि देश एक सम्माननीय प्रांतीय नेता ने सर्वमान्य एंव अन्तराष्ट्रीय आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को 'ओसामा जी' कह डाला। पूरा अखबार इसी समीक्षा से भरा था कि क्या उस आतंकवादी को सम्मान दिया जाना उचित था जो पूरी मानव जाति के लिए खतरा था या नहीं। वैसे उच्चारण कि द्रष्टि से तो ओसामा के स्थान पर 'ओसामा जी ' कही ज्यादा कर्णप्रिय लगने लगा है । देखते ही देखते नेताओं को शुर्खियों में रहने का बहाना मिल गया । एक और नेता जी ने देश कि संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को "अफजल गुरु जी" कह कर संबोधित किया। शायद नेता जी ने ठीक ही कहा हो। नेता जी के लिए देश कि गरिमा और संप्रभुता से ज्यादा अफजल गुरु कि जाति और धर्म के वोट कहीं ज्यादा महत्त्व के थे, सो अफजल गुरु "अफजल गुरु जी" हो गए। इसमें नेताजी को कोई उलाहना नहीं दिया जाना चाहिए....ये कोई पहली बार तो हुआ नहीं.... इस देश में कई बार अफजल गुरु जैसे लोग ......गुरू 'जी' होते आये हैं। इतिहास साक्षी है इसका । बुरे व्यक्ति या फिर बुराई के परिणाम से समाज को डर लगता है, इस कारण भी हम उन्हें सम्मान देते आये हैं, टेढ़ जान शंका सब काहु, वक्र चंद्रमहीं ग्रसे न राहु। देखिये कहा गया है कि य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये। सुखभौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिनन्तकः।। बुराई कि कोई औषधि नहीं है। बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा।


सिद्ध है कि किसी भी व्यक्ति को मान सम्मान सिर्फ उसके अच्छे कार्यों के आधार पर ही नहीं मिलता, इसके कई और गुप्त कारण भी होते हैं। मजे कि बात तो ये है कि बुराई का भी सम्मान होता है, बशर्ते कि बुराई कुछ बड़े स्तर कि हो। गाँव का हत्यारा बुरा मान लिया जाता है क्यों कि वह छोटे स्तर का अपराधी हैं, मगर गोडसे अच्छा जान पडता है क्यों कि वह स्टेन्डरड साइज़ का सुयश अपराधी है। गोडसे के कार्य पर कई लोग माथा पच्ची करते आये हैं कि उसने जो किया वो सही ही था या कुछ और ...... वो सही था तो कैसे......हाँ वो लोग सबूत लेकर आयेंगे कि गोडसे सही ही था। एक विश्विद्यालय का नामकरण गोडसे के नाम से करवा लेंगे वो। कौन इज्जत पाने का हकदार है और कौन नहीं...इसको मापने के सभी के अपने अपने मापदंड होते हैं। छोटे चोरों के लिए सफाई से जेब कतरने वाला भी इज्जत का हकदार है और वो उसे "आप" लगाकर पुकारते हैं। मगर उनके लिए नेता, जो कि एक बड़ा चोर है वो "तू" का ही हकदार होता है, क्योंकि सीधे सीधे वो उनके किसी काम का नहीं। जो काम का है उसे 'आप' बनते ज्यादा देर नहीं लगती। आज कि दुनिया तो ऐसी ही है।


एक मजेदार बात और है, वो है 'आप से तू' और 'तू से आप' बनने में लगने वाला समय। 'आत्मीयता' जितनी जल्दी आती हैं उतनी ही फुर्ती से गुल भी हो जाती है। पुराने समय में जब कोई 'आप' बनता था तो उसे काफी वक्त लगता था। विश्वास जीतना पडता था। साख काम करती थी। मगर वर्तमान समय में जो कुछ समय पहले जो 'आप' था वो पलक झपकते ही 'तू' बन जाता है। कितनी मजे कि बात है यह। नेता सुबह आप होता है दोपहर को तू और जब वो शाम को उसी पार्टी में लौट आता है जिसे दोपहर को छोड़ आया था तो वो फिर सुबह कि भाँती 'आप' बन जाता है। मेरे एक रिश्तेदार का दुबई में कारखाना है। वहाँ दुबई में किसी शेख को हिस्सेदार बनाना ही पड़ता है, ये वहाँ का कानून है। कोई भारतीय सीधे सीधे किसी कारखाने का मालिक नहीं हो सकता। दुबई में उन्होंने शुरू से ही काम को पूजा समझा और रबाब (शेख) का दिल जीत लिया और खूब तरक्की पाई। गाँव कि जिस मकान कि छत पर जहाँ कभी कोरी पत्थर कि पट्टिया लगी थी, जिनके जोड़ों से टपकने वाले पानी में पूरा गाँव भीगता था, वहाँ आरसीसी गोल गोल घूम कर झुक गयी....झुकी भी ऐसे कि पूरा गांव ही सूख गया। तीस सालों तक रबाब और वो आत्मीयता से रहते आये। अब पुराने बूढ़े हो गए और उनके लड़कों ने कंपनी संभाल ली। रबाब का लड़का भी कारखाने का नया हिस्सेदार बन गया। मेरे रिश्तेदार के गाँव के ही एक दूसरे व्यक्ति का छोटा सा कारखाना भी दुबई में ही था, मगर उसे काम कुछ कम ही मिलता था। शेख का लड़का एक रोज भारत घूमने आया तो मेरे रिश्तेदार के घर पर भी रूका। जब इसकी भनक उसी गाँव के दूसरे कंपनी मालिक को लगी तो वो शेख के लड़के को घुमाने अपने घर पर भी ले गया। उसे लोग आज के हिसाब से "फिट" व्यक्ति कहते हैं, मतलब वर्तमान समय में कैसे जीना है उसे आता है। लोगों कि माने तो शेख का लड़का रात भर उसकी पत्नी के साथ ही रहा। अब बुरा या अच्छा क्या हुआ ये तो भगवान ही जानता है, हाँ मगर दुबई लौटने पर उसने मेरे रिश्तेदार के सारे काम वापस ले लिए और दूसरे कंपनी मालिक जिसके घर वो रात भर रुका था, को सौंप दिए। शायद वो काम को ज्यादा लगन और मेहनत से करता होगा। आप कहीं भूल नहीं जाए इसलिए मैं आपको याद दिला दूँ कि वो आत्मीयता और विश्वास जो बरसों से बना था और तीस साल से चलता आया था, वो रातों रात न जाने कैसे और कहाँ गायब हो गया। आजकल जिधर देखो उधर ऐसा ही हो रहा है। कोई फिट है तो कोई अनफिट। प्रकृति में उसी का सम्मान है जो यूजफुल हो। अब कोई व्यक्ति कहाँ तक यूजफुल हो पाता है ये तो उस पर निर्भर करता है। बात उसूलों कि भी है। कोई बात किसी के लिए जीने या मर जाने का सवाल होती है वो किसी के लिए बस इतनी ही महत्त्व कि होती है जैसे कि कोई बैल उसके लोन में घुस कर चर गया हो। आजकल उसूल भी कुछ कम ही दिखाई देते हैं ....कई बार जहाँ दिखते हैं वहाँ होते भी नहीं.....डर है कि कहीं ये लुप्त ही न हो जाएं। जीवन में सदाचरण का महत्त्व घटता जा रहा है जो कि चिंता कि बात है । जीवन में नैतिक मूल्यों को धर्म और जाति से ऊपर उठाना होगा। सदाचरण और मूल्यों को किसी भी रंग से पोतकर प्रस्तुत करना घोर निंदनीय है। नैतिक मूल्य और सामाजिक नियमों को मानना चाहिए, ये हमारे जीवन को सरल एंव सुरक्षित बनाने के लिए ही बने हैं। यदि हम इनकी सुरक्षा करते हैं तो हमारा व्यक्तिगत एंव सामाजिक जीवन स्वतः ही सुरक्षित हो जायेगा ।


'तू' और 'आप' का बनता बिगडता समीकरण आप और मेरे जीवन तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसकी पहुँच अन्तराष्ट्रीय स्तर कि है। अब आप खुद ही गौर कर लीजिए कि कभी तो जिन्ना 'तू' होता है कभी 'आप' बन जाता है। कभी अमरीका 'आप' है तो दबी जबान में ही सही कभी कभार 'तू' भी होता है। रूस वैसे तो ज्यादातर 'आप' ही होता है मगर हमें ये डर सताता रहता है कि कहीं वो 'आप' से तू ना हो जाए। अगर हो गया तो फिर दूसरा कौन हमारा अगला "आप" होगा ? कुछ मुल्कों का तो काम ही यह है कि येनकेन प्रकारेण रूस भारत का 'तू' बन जाए तो रिश्ते में उनका स्वतः ही 'आप' लगने लगेगा। जो मुल्क भारत के लिए ऐसा सोचते हैं वो भारत के 'तू' लगते हैं। मुझे लगता है कि हमारा आधे से ज्यादा समय तो इसी घालमेल में ही बीत जाता है कि कहीं हमारा "आप" ......"तू" न बन जाय। सच तो ये है कि हम कभी दिल से कोशिश ही नहीं कर पाए 'तू' को 'आप' बनाने कि....और अगर करते तो सारा झंझट ही खत्म हो जाता। जरा सपना लीजिए जहाँ कोई 'तू' नहीं कोई 'आप' नहीं, । विचार मात्र से ही दिल को सकूं मिलता है। हमें कोशिश करनी होगी इस दिशा में भी। सही मायनों में ये हमारा उपहार होगा आने वाली पीढ़ियों के लिए। नफ़रत और हिंशा से मानसिक शान्ति समाप्त हो जाती है और प्रगति के मार्ग भी अवरुद्ध होते है।


बात थी 'आप' और 'तू' कि, इस मामले में हिंदी से अच्छी अंग्रेजी भाषा है जिसमें सभी को यू (You) लगाकर सलटा दो। न कोई झंझट न ये सोचने कि जरुरत कि सामने वाला 'आप' का अधिकारी है या 'तू' का । ज्यादातर लोग व्यक्तिगत स्वार्थों से पुते हैं मगर हाँ, कुछ लोग अब भी ऐसे मिल ही जायेंगे जिनके लिए व्यक्तिगत स्वार्थों के बजाय वो कार्य ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं जिनमे सबका भला निहित होता है। 'जमाने से इतनी रुसवाई भी ठीक नहीं....ढूंढने से आज भी नेक इंसान मिल जाया करता है.....थोडा ही सही मगर कुछ यकी तो ऊपर वाले पर भी रख...रोज सुबह ये सूरज यूँ ही नहीं निकला करता है।' वैसे मैंने भी स्वंय के अपमान पर दुखी होना छोड़ दिया है क्यों कि मेरे एक दोस्त ने मुझे सलाह दी है कि 'ठण्ड और अपमान' महसूस करने से और ज्यादा बढते हैं। बात सही भी है।


मैं तो अब तक इतना ही समझ पाया हूँ कि .... जिस से स्वार्थ है या जिस से डर लगता है वो "आप" है और जिस से हमें कोई ख़तरा नहीं ....कोई स्वार्थ भी नहीं... या फिर जिससे स्वार्थ कि पूर्ति हो चुकी है वो "तू" है.....सीधी से बात है..... अब 'आप' क्या समझते हैं ये तो 'आप' पर निर्भर करता है।