चंद यादें Chand Yaden Short Story
कहते हैं वक्त में बहुत बड़ी ताकत होती है, वो बहुत कुछ मिटा देता है और बहुत कुछ बना भी मगर कुछ यादें दिल की गहराइयों में समा जाती हैं जो उमर भर पीछा करती हैं, उन्हें कोई चाहकर भी मिटा नहीं सकता। रामप्रसाद अपने पिताजी के साथ पंजाब के एक छोटे से कस्बे में रहता था। रामप्रसाद को शुरू से ही वहाँ के लोगों और तहजीब से लगाव था, लोगों का मुस्कुरा कर मिलना.....मानों उनकी जिंदगी में कोई गम ही न हों। पंजाब की मिट्टी, खासकर गावों की.....प्यार और अपनेपन की एक सौंधी सी महक से लबरेज होती है....हवाओं में घुली मिली सी..... मुश्किल है तो लफ्जों में ढालना मगर एहसास करना उतना ही आसान जैसे किसी फूल की खुशबू। उसके पिताजी को भी पंजाब इतना पसंद आया कि कभी तबादले के बारे में सोचा ही नहीं।
रामप्रसाद उस वक्त अंग्रेजी से एमए कर चुका था। पिताजी का हाथ बँटाने और खुद को व्यस्त रखने के लिए पास ही के गाँव में अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया। रामप्रसाद को गाँव में एक अजीब से सुकून का एहसास होता था, मानो वो भी यहीं कहीं का हो। सच में वहाँ एक तरह की शान्ति थी, जो रूह तक को ठंडा किये जाती। जीवन तो वहाँ भी दौडता था मगर उसका कोई दिखावा नहीं था। रामप्रसाद पढाने के समय से काफी पहले ही साईकिल से गाँव आ जाता और गाँव में नहर के किनारे बने पीर बाबा की मजार के सामने के बड़े बड़े पेड़ों की छाया में बैठा रहता। मजार पर एक बूढ़े बाबा रहा करते थे। मजार के आस पास के इलाके की देखभाल बाबा ही करते। धीरे धीरे रामप्रसाद ने बाबा से एक अनकही दोस्ती बना ली थी। उसके आते ही घड़े से ठंडा पानी लिए बाबा भी आ जाते पेड़ों के नीचे। बाबा को पेड़ पौधों से ख़ासा लगाव था वो पेड़ों को यूँ निहारते जैसे वो उनकी ही संतान हों। बाबा के पास सुलझे विचारों के लोग ही आते थे, नशेड़ियों और दिन भर पत्ते पीटने वालों का यहाँ कोई काम न था। साफ़ सफाई और खाना बनाने के बाद उनका काम होता छोटे बच्चों को आमों के पेड़ों पर उछल कूद मचाने से रोकना। पके हुए आम जमा करते और बच्चों में बाँट दिया करते। बाबा के मन में बदले में कुछ चाहने की बात न थी। रामप्रसाद कई बार सोचता था कि बाबा का जीवन कितना सरल है, मगर कितना अकेला भी.....भला कोई इंसान कब तक अकेला रह सकता है मगर बाबा से उनके परिवार और एकांत जीवन के बारे में सवाल पूछने का साहस कभी जुटा नहीं पाया।
शाम को रामप्रसाद कुलदीप के साथ सरदार जी के घर पहुंचा।
"आ भई कुलदीपे, कित्थे रहंदा है, सुणा फेर कोई चंगी माडी..." सरदार जी ने उनकी ओर खाट सरकाते हुए कहा।
"बंदे का दिल साफ़ होना चाहिए जी, फेर की चंगा ते की माडा....सरदार जी मैं सज्जू को अंग्रेजी पढ़ाने के लिए मास्टर नाल लाया हूँ, अपना ही दोस्त है जी, इसके पिताजी कस्बे में नहर विभाग के मुलाजिम हैं।" कुलदीप ने रामप्रसाद की ओर इशारा करके कहा।
सरदार जी रामप्रसाद को काफी देर तक ऊपर से नीचे देखते रहे......लगा अंदर झाँक कर सब कुछ जानना चाहते हों। माहौल को कुछ हल्का रखने के लिए रामप्रसाद लगातार मुस्कुराए जा रहा था। सरदार जी के चेहरे से लग रहा था जैसे वो साफ़ साफ़ बता देना चाहते हों कि कोई उन्हें भोला भाला समझने की भूल कतई न करे, भले ही वो गाँव में रहते हैं...मगर इंसान और उसकी फितरत को बेहतर पहचानते हैं।
" तुस्सी ए गल तां चंगी कित्ती, नाल दे नाल ए वी दस्स दे तेरा मास्टरा किने पहे लेउगा, गल साफ़ सुथरी होणी चाहीदी।"
"थ्वानु जो चंगा लगे, वैसे मैंने पूरी किताब के हजार रुपये दस्से हैं जी"
"चंगा भाई मास्टरां..ते अज्ज ते ही शुरू हो जा पढ़ाना...." सरदार जी ने रामप्रसाद की ओर देखकर कहा।
"नहीं .....नहीं, आज से नहीं सरदार जी, आज तो मैं किताबें भी नहीं लाया, कल शाम से वक्त पर पहुँच जाऊंगा। शाम पाँच बजे से एक घंटा रोज पढ़ा दिया करूँगा"
"जेडी तेरी मर्जी मास्टरा..मेनू तां खेती नाल ही फुरसत नयी मिलदी....नी तां मैनू कैडी अंग्रेजी घट आंदी अ"
तभी सरदार जी की पत्नी चाय लेकर आ गयीं, बड़े बड़े कटोरे वो भी ऊपर तक भरे। रामप्रसाद ने एक ही चुस्की ली और सरदार जी से नजर बचाकर कटोरे को खाट के नीचे सरका दिया।
"की गल हुई मास्टरा.....तुस्सी चाय नी पित्ती ?"
"वो सरदार जी मैं गुड की चाय नहीं पीता...मुझे पहले पता नहीं था वरना मैं पहले ही मना कर देता।"
"केडा अरना वरना....ल ए भी कोई गल हुई....कोई होर चाय हो सकदी है गुड बरगी वदिया....पी तां सही मास्टरा, ए दे विच अस्सी केडा जहर पाया सी"
सरदार जी के आगे रामप्रसाद की कहाँ चलने वाली थी, न चाहते हुए भी पूरी चाय पीनी ही पड़ी। रामप्रसाद को घर लौटते शाम घिर आई थी, गाँव वाले खेतों से घरों को लौटने लगे थे। गाँव से बाहर निकलने पर देखा कि मजार वाले बाबा ने खाना बनाने के लिए चूल्हा जला लिया था, वो भी बिना रुके आगे बढ़ चला। घर लौटने पर रामप्रसाद काफी देर तक सरदार जी के बारे में सोचता रहा। सरदार जी की लंबी चौड़ी कद काठी..लंबी लंबी दाढ़ी। उनका आत्मविश्वास और साफगोई ने रामप्रसाद को सोचने पर मजबूर कर दिया।
अगले रोज जब वो सरदार जी के घर पहुँचा तो वो पौल में बैठे हुक्का पी रहे थे। उन्होंने रामप्रसाद को खाट पर बैठने का इशारा करते हुए कहा "देख भाई मास्टरा....मेरे कहे नू किसे दूजे पासे लेकर न जाई, मैनू कोई लाग लपेट चंगी नी लगदी। मैनू बस ए ही कणा है, आजकल दा माहौल बड़ा गन्दा है जी, तुस्सी तां रोज अखबारां विच पढ़ दें हों, विश्वास दा वकत रेहां नयी जी। तुस्सी तां नेक बंदे लगदे हो, रब्ब महर करे....बस कुडी नू पूरे ध्यान नाल पढ़ाई, पहे दी चिंता ना करी..पुतर पहे दा बंटता की है...तुस्सी ही दस्सों, इंज हाथ आंदा ते इंज जांदा। सज्जू अंदर कमरे विच है, तुस्सी पढ़ाना शुरू करो, मैं तां चला खू ते, आज मैनू पाणी दे नक्के वी मौडने हैगे"
"सरदार जी, मैं कमरों के बारे में कुछ जानता नहीं, आप चलकर बता देते तो ठीक रहता। "
"हुन मेनू तां खू जाण दे......सज्जू....ओ सज्जू.....इत्थे आ"
सज्जू आकर रामप्रसाद को पढ़ने के कमरे तक ले गई। रामप्रसाद ने देखा सज्जू की किताबें अभी भी नई जैसी थीं। लग रहा था जैसे किसी ने उन्हें पलटकर ही न देखा हो। काफी मेहनत करवानी पड़ेगी, ये तो किताबें ही बता रही थीं। पढ़ाई के दौरान बीच बीच में सरदार जी की पत्नी कमरे में किसी काम से आती जाती रहती, शायद अपनी मौजूदगी दिखाने, उनका सोचना भी गलत नहीं था।
शाम होने पर जब रामप्रसाद जाने लगा तो देखा की सरदार जी खेत से लौट चुके हैं और हमेशा की तरह उनके साथ था हुक्का।
"मास्टरा की नां दसिया सी तुस्सी.....प्रसादी लाल...ईत्थे आ, ल एक दो सुट्टे तुस्सी भी खींचों। जोश आ जावेंगा, साडे हुक्के दी तम्बाखू अस्सी खुद तैयार करदे हाँ, सौंफ, इलाइची ते काला गुड पा के, एसनू बाजार च विकण वाली तम्बाखू ना समझी। इक घूँट पी ते वेख चोटी खड़ी होकर हाथ विच ना आ जावे, तां मैनू दस्सी"
अन्धेरा होते होते सरदार जी ने जाने की इजाजत दे ही दी। ये पहला दोस्ती भरा कदम था सरदार जी और रामप्रसाद के बीच। वक्त के साथ साथ सरदार जी को रामप्रसाद पर यकीं बढ़ता गया, वो सज्जू को पढाने के बाद अक्सर ही सरदार जी के साथ बैठकर हुक्का पीता और इधर उधर के बातें करता रहता। रामप्रसाद को इस बात की काफी खुशी थी की सरदार जी के चेहरे पर उसके लिए अब अविश्वाश और अजनबी के भाव मिटते जा रहे थे। सरदार जी से उसका रिश्ता अब सिर्फ पैसे लेकर पढाने तक ही नही था। खेत से लौटते वक्त अब वो ताज़ी सब्जियां रामप्रसाद को देते और हर बार समझाते ..."बंदे दे शरीर विच जाण होणी चाहीदी, नई तां जिन्दे ते मुर्दे दे विच फरक ही की हुंदा, तां इ ते कदे नी ........खादा पीता लाहे दा...बाकी अहमद शाहे दा"
काम तो काफी था मगर वक्त निकाल, रामप्रसाद मजार वाले बाबा से मिलना नहीं भूलता।
इन दिनों रामप्रसाद कुछ परेशान था, सरदार जी के लिए नहीं, कारण थी सज्जू। जाने क्यूँ रामप्रसाद के बार बार समझाने पर भी सज्जू का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था। रामप्रसाद को डर था कहीं नंबर अच्छे न आये तो फिर पढाने का क्या फायदा। सरदार जी क्या सोचेंगे, उन्होंने जो विश्वाश दिखाया है उसका क्या होगा, सोचेंगे मास्टर हराम के पैसे ले गया। रामप्रसाद ने सोचा सरदार जी को बताने से पहले उसे ही सज्जू को समझाना होगा।
"कल जो पाठ पढ़ाया था उसका एक स्टैंजा यहाँ लिखा है...तुम इसको एक्सप्लेन करके लिखो कि इन पंक्तियों में राइटर क्या कहना चाहता है" रामप्रसाद ने कॉपी सज्जू को देते हुए कहा। मगर सज्जू तो लगातार रामप्रसाद के तरफ देखे ही जा रही थी, जैसे उसने कुछ सुना ही ना हो।
"सज्जू ! मैं तुमसे बात कर रहा हूँ, कई दिनों से तुम्हारा ध्यान पढ़ाई में बिलकुल भी नहीं लग रहा है, अंग्रेजी विषय नम्बर ऐसे ही नहीं आते, दिन रात एक करना पडता है....लो पकड़ों और स्टैंजा में राइटर क्या कहना चाहता है, जल्दी से एक्सप्लेन करो।"
रामप्रसाद से कॉपी लेते वक्त सज्जू ने जानबूझ कर रामप्रसाद के हाथ को छुआ। तभी सरदार जी की पत्नी कमरे में आईं और कहने लगी कि पडौसी की लडकी को देखने के लिए उनके जानकार आए हैं, वो पडौसी के घर जा रही है, कुछ देर में लौट आएगी।
सज्जू ने थोड़ा बहुत लिखकर कॉपी लौटाते वक्त रामप्रसाद का हाथ पकड़ लिया। रामप्रसाद के बात कुछ समझ में नहीं आई। उसने गर्दन उठा कर पहली बार गौर से सज्जू को देखा।
"ये क्या .....छोड़ो..तुम पढ़ना तो बिलकुल चाहती ही नहीं...."
"सर आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं........मैं आपसे ....." कहकर सज्जू दूसरे कमरे में चली गयी।
रामप्रसाद के तो मानों पांवों तले जमीन खिसक गयी थी, छाती पर मानों हजारों पत्थर एक साथ आकर गिर गए हों....कदम जमे तो ऐसे कि कमरे से बाहर निकलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बाहर आकर वो सरदार जी की खाट पर बैठ गया। थोड़ी देर में उसे सरदार जी आते दिखाई दिए, वही चौड़ी छाती और लंबी लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरते।
" की गल मास्टरा...तबेत तां चंगी है तेरी...."
"जी, वो आज सुबह से ही हालत कुछ पतली है"
"पतली तां होणी ही सी....कुज खान्दा पींदा है के नी, दस्स, तेरी खुराका की होऊगी, एही कोऊ ढाई सौ ग्राम...होर की, चल छड्ड ले हुक्का फड।
सरदार जी इजाजत लेकर वो सीधा पीर बाबा की मजार की ओर बढ़ चला। बाबा रात का खाना बनाने की तैयारी में थे।
"क्या बात है बेटा, आजकल आते नहीं, सब खैरियत तो है न"
"हाँ बाबा, किताब पूरी होने वाली है बच्चों की....पूरे पाठ पढ़ा दूँ तो कोई ये न कहे, मास्टर ने पढ़ाया नहीं"
"सो तो है बेटा, जे बन्दा जवाबदारी से काम करे तो खुदा भी खुश होता है। लेकिन आजकल ये सब सोचता कौन है"
"अच्छा बाबा आज तो मैं चलता हूँ फिर किसी रोज वक्त निकाल कर आता हूँ"
रामप्रसाद से साईकिल चलाना भी दूभर हुए जा रहा था, साइकिल हाथ में पकड़े पैदल ही शहर की ओर बढ़ने लगा। अंदर ही अंदर एक द्वन्द था। अगर पढ़ाना बीच में ही छोड़ दे तो लोगों की नज़रों में वो कहाँ ठहरेगा। सरदार जी को सज्जू की बात भी कैसे बताए, सोचा उसे ही सज्जू को इस बारे में समझाना होगा।
अगले रोज रामप्रसाद ने किताब निकाली और आगे के बचे हुए पाठों पर नजर डाल पढ़ाना शुरू किया। सज्जू का ध्यान पढ़ाई में लगा रहे इसलिए उसे पाठ को पढकर अनुवाद करने को कहा। रामप्रसाद ने सज्जू के हाथ बढाने के पहले ही किताब को मेज पर रख दिया। सज्जू पाठ का अनुवाद ठीक से कर रही थी। रामप्रसाद वैसे तो नजरें नीची ही रखता था मगर तब उसने सज्जू के मन को पढ़ने के लिए उसकी ओर देखा। उसका देखना ही था की सज्जू ने भी रामप्रसाद की ओर देखना शुरू कर दिया। शायद इसे ही आखों का उलझना कहते हों। रामप्रसाद को उसकी आखों में एक चुम्बक जैसा आकर्षण दिखा....जो उसे जबरन खींचे जा रहा था...वो अच्छे बुरे की पहचान को विस्मृत किये जा रहा था। खुद को सँभालते हुए रामप्रसाद ने लड़खड़ाती जबान से सज्जू को प्रश्नों के हल लिखने को कहा। एक साथ इतने सारे प्रश्न उसने पहले कभी नहीं दिए थे, मगर वो सज्जू को हर हाल में पढ़ाई में ही लगाए रखना चाहता था। लगे हाथों रामप्रसाद ने दूसरा पाठ भी झटपट पढ़ाना शुरू कर दिया। घडी देखकर जब रामप्रसाद जाने के लिए किताबे उठाने वाला था तभी सज्जू ने एक लिफाफा उसकी किताब में डाल दिया।
"ओ मास्टरा, की सारी किताबां अज्ज ही निपटाऊगा....., अन्धेरा होण आया, चल छड्ड, आजा दो चार सुट्टे मार ले।"
कमरे से बाहर निकलते हुए उसने सज्जू की ओर देखा तो पाया कि वो भी उसी को ओर देख रही थी. उसकी आखों में सच्चे प्यार का भाव साफ़ पढ़ा जा सकता था, जिसे सिर्फ जिस्मानी आकर्षण कहना गलत ही था. उससे नजर हटाकर वो सरदार जी की ओर बढ़ चला.
"सरदार जी, वैसे तो परीक्षा में अभी काफी वक्त है..मगर मैं किताब जल्दी पूरी करना चाहता हूँ। इन दिनों मेरे पिताजी की तबियत भी ठीक नहीं रहती...अब एक आधे दिन में किताब पूरी कर दूँगा।"
घर लौटकर रामप्रसाद ने कमरा अंदर से बंद कर सज्जू का लिफाफा निकाला जिसमें सज्जू की बड़ी ही बला कि खूबसूरत तस्वीर थी, जिसे देखे तो लगे मानों खुदा की सारी कायनात थम गयी हो......कोई प्यार का मौन प्रतीक, जो कुछ भी न कहते हुए सब कुछ कहे जा रहा हो।
अंदर एक कागज पर लिखा था...."सर, आप मुझे पहली ही नजर में बहुत अच्छे लगे, इसे मेरा पहला प्यार कहो या कुछ और..मैं आप से प्यार करने लगी हूँ। मुझे आप के सिवाय अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मुझे बस आपके आने का इन्तजार रहता है। सच मानिये सर, ये मैं जानबूझ कर नहीं कर रही। सर, मैं कोई आवारा लडकी नहीं, किसी से भी पूछ कर देखिए। मुझे आपकी फोटो चाहिए, कल आते वक्त साथ लेकर आना....सर एक बात और, डांटते वक्त आप मुझे और भी ज्यादा अच्छे लगते हैं......"
रामप्रसाद का दिल जोर जोर से धडकने लगा। सज्जू ने तो साफ़ कर दिया था वो क्या सोचती है। मगर क्या उसे भी सज्जू जैसा ही हो जाना चाहिए। मन ही मन उसे एक अपराध बोध भी था की क्यों सज्जू की तरफ देखते ही सब कुछ थम सा जाता है......कहीं वो भी तो सज्जू से........अब आगे क्या करना चाहिए....इन्ही खयालों में खोए रामप्रसाद की आँख कब लग गई, पता नहीं।
अगले रोज रामप्रसाद ने सारे नोट्स जमा किए और गाँव की ओर बढ़ चला। सरदार जी खेत पर गए थे, रामप्रसाद पढाने के कमरे में गया और सज्जू की ओर देखकर कहने लगा "देखो सज्जू, अब एक दो पाठ ही बचे होंगे, मैं उनके नोट्स लेकर आया हूँ, तुम होशियार हो....मुझे यकीन हैं खुद ही पढ़ लोगी....ये लो मेरी कुछ किताबें और नोट्स. ...तुमने जो लिखा था उसका जवाब अंदर लिफ़ाफ़े में है। सरदार जी से कहना की मेरे पिताजी की तबियत ठीक नहीं।
जाते जाते रामप्रसाद ने आखिरी बार सज्जू की तरफ देखा ....आज उसकी नाजुक आखों में प्यार तो था मगर नमीं से लिपटा हुआ। सज्जू को बिना पढाए ही रामप्रसाद पीर बाबा की मजार की ओर बढ़ चला। हाँ, ये भी सच है कि रामप्रसाद की आखों में भी कहीं कुछ टूटने का दर्द तो था।