गम था की तुमने मुझे समझा नहीं,
गम है की तेरे सिवा यहाँ कौन मुझे समझता है।
तुम तो छोड़ चले थे मुझको अकेला,
कौन फिर मेरे ख्वाबों में रोज आता है।
परिंदा बन उड़ने लगा था मैं,
भूल गया की वक्त को पर कतरना भी आता है।
टूट कर गिर गया जो इक सितारा,
फिर आसमान सारा पुकारता है।
दौड़ा दौड़ा के वो हँसता रहा,
नसीब को गरीबी का मज़ाक उड़ाना क्या खूब आता है।
पूछते हैं अंधेरे मुझसे अक्सर,
वक़्त रौशनी का आजकल कहाँ गुजरता है।
क्या हुआ जो रौशनी नहीं जीने में,
मुझे अँधेरों के सहारे अब जीना आता है।
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bhav pradhan rachna
जवाब देंहटाएंक्या हुआ जो रौशनी नहीं जीने में,
जवाब देंहटाएंमुझे अँधेरों के सहारे अब जीना आता है।
सही कथन। जिन्दगी सबकुछ सिखा देती है।
वाह वाह वाह...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...आखिरी पंक्तियाँ तो हृदयग्राही हैं....
जवाब देंहटाएंहर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
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