"सोचते हैं थी वो आग भी कैसी" Sochte Hain Thi Wo Aag Bhi Kaisi Poem
मरते हैं रोज रोज जीने को,
जीने की है फिर जिद कैसी।
इतने मजबूर तो न थे पहले,
हँसती है आईने में ये लाश कैसी।
आखिर वक़्त से है जमाना ,
है वक़्त से मेरी दुश्मनी कैसी।
गर खुदा की ये कायनात सारी,
दुश्मनी आदमी की आदमी से कैसी।
बुझा डालिए जमाने के चिराग,
अँधेरों को रौशनी की जरूरत कैसी।
हम तो थे राहों के पत्थर उनके,
पत्थरों को राहों की, तलाश कैसी।
रिश्ता गर नहीं कोई कातिब से,
चेहरे पर आपके, ये शिकन कैसी।
तपिश उठती है जिसकी आज भी,
सोचते हैं, थी वो आग भी कैसी।