दौड़ता है इंसान वक़्त के पीछे,
पलटकर जो पीछे देखे, नहीं फितरत वक़्त की।
मिट गए जाने कितने इंसान,
जो ना मिट पाई वो हस्ती है वक़्त की।
वक़्त की बातें हैं वक़्त से,
ना दोस्ती ना दुश्मनी की, बातें हैं वक़्त की।
भरते नहीं क्यों जख्म वक़्त से,
हैं आदत इंसान की हरवक़्त कुरेदने की।
नहीं रहा डर इंसान को किसी नजर का,
है खता कहाँ इसमें वक़्त की।
इंसान समझता नहीं कुछ वक्त को,
वाजिब शिकायत है वक़्त की।
वक़्त ने छीने जीने के बहाने सारे,
अजीब दुश्मनी है ज़िंदगी से वक़्त की,
जी तो लिए उम्र सारी हम,
क्यों फिर लगती है आज कमी वक़्त की।
"सच" वो जमीन से आसमां हुए,
बात उनकी नहीं, है वक़्त की।









सही शब्दों में वक़्त के मायने समझाने के लिए आपका आभार
जवाब देंहटाएंवक्त की नजाकत को आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है!
जवाब देंहटाएंसुन्दर गजल!
'सच' वो जमीन से अस्मां हुए
जवाब देंहटाएंबात उनकी नहीं है वक्त की
उम्दा शेर ...अच्छी ग़ज़ल
इंसान समझता नहीं कुछ वक्त को,
जवाब देंहटाएंवाजिब शिकायत है वक़्त की।
वक़्त की यह शिकायत बिल्कुल सही है।
बार-बार पठनीय रचना।
समय के सारे रंगों को लिए हैं पंक्तियाँ ..बहुत खूब
जवाब देंहटाएंहर शेर लाजवाब और बेमिसाल ..
जवाब देंहटाएंवक़्त की यह शिकायत बिल्कुल सही है।
जवाब देंहटाएंकुछ दिनों से बाहर होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
जवाब देंहटाएंमाफ़ी चाहता हूँ
वक़्त की हर शय गुलाम , वक़्त का हर शय पे राज़ ..
जवाब देंहटाएंher sher kabile tarif hai .........
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