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आखिरी सलाह Aakhiri Salah Short Story



आज रामप्रसाद कार्यालय से जल्दी लौट आया था। उसने उसकी पत्नी सरोज से कहा की वो अपना सारा सामान सूटकेस में रख ले क्यों की वो कहीं जा रहे हैं। सूटकेस लेकर रामप्रसाद बगैर माँ को कुछ बताए सरोज के साथ घर से निकल पड़ा। बस में बैठने के बाद रामप्रसाद ने सरोज से कहा "देखो सरोज, मैंने कभी भी तुम्हारे जीने के सलीके या सोचने के नजरिये को किसी साँचे में ढालने की कोशिश नहीं की। मैंने तुम्हारी भलाई और समाज में परिवार की मर्यादा को ध्यान में रखकर ही तुम्हें कभी किसी काम के लिए टोका होगा। मुझे लगता है मेरे और तुम्हारे विचार कभी मिल नहीं सकते, या शायद तुमने कभी मिलाना चाहा ही नहीं। मैं चाहता हूँ की तुम वही ज़िंदगी जियो जो तुम जीना चाहती हो, यूं रोज रोज घुट कर जीने में भी क्या रखा है। तुमने मुझे कभी बताया नहीं लेकिन मुझे विपिन और तुम्हारे रिश्ते के बारे में पता है। मुझे पता है की तुम आज भी उससे प्यार करती हो और तुम उसी से शादी करना चाहती थी लेकिन शायद तुम समाज का विरोध करने का साहस वक्त रहते जुटा न पाई। मैंने जयपुर बस स्टेशन पर पर विपिन को बुलाया है। तुम बगैर किसी रोक टोक के उसके साथ जा सकती हो लेकिन कोई भी फैसला लेने से पहले एक बार अच्छे से सोच लेना। तुम्हारे उठाए कदमों की वापसी को संभालने की हिम्मत अब मुझमें बाकी नहीं है। तुमने मेरे साथ जो भी किया उसके लिए मैं तुम्हें कोई दोष नहीं दूंगा....ये मेरा ही नसीब है जो आज मुझे जिंदगी के इस अजीब मोड पर लेकर आया है। वैसे सच तो ये है की मुझे कभी किसी का प्यार मिला ही नहीं। अब मैं तुम्हें बस एक आखिरी सलाह देना चाहता हूँ.......इस ज़िंदगी में कभी किसी का विश्वास मत तोड़ना............बहुत दुखः होता है...........।"  कहते कहते रामप्रसाद का गला भर आया। वो चाहकर भी आंसुओं को छलक़ने से रोक न सका। जाने वो कौनसी बात थी जिसके चलते सरोज एक शब्द भी नहीं बोल रही थी। बाकी सफ़र खामोशी में ही गुजर गया।

बस जयपुर के स्टेशन पर पहुँची तो रामप्रसाद ने सामान नीचे उतार दूर इंतजार कर रहे विपिन की ओर सरोज को इशारा कर बस की उसी सीट पर बैठ गया जिस पर वो बैठ के आया था। सरोज को विपिन के साथ खुशी खुशी जाते रामप्रसाद किसी बुत की तरह देखता रहा, लेकिन सरोज ने एक बार पीछे मुड़कर देखा तक भी नहीं। थोड़ी ही देर में दोनों भीड़ में कहीं खो गए। अंधेरा होने को आया था। बस शहर के उजालों को छोड़ सुनसान सड़कों पर बिखरे अँधेरों को चीरती हुई मंजिल की ओर बढ़ी जा रही थी। रामप्रसाद की नजरें बस की खाली पड़ी सीटों पर सरोज को कहीं तलाश रहीं थी। वापस जा कर माँ से सरोज के बारे में क्या कहेगा, तमाम रिश्तेदारों के सवालों का क्या जवाब देगा, कुछ इसी तरह के सवाल रामप्रसाद को रह रह कर खाए जा रहे थे।

अचानक ही रामप्रसाद का ध्यान बस परिचालक के शब्दों से टूटा " भाईसाहब कहाँ जाओगे.......आप तो आए भी इसी गाड़ी से थे और जा भी रहे हो.......किसी को छोड़ने आए थे क्या ?"

"हाँ भाईसाहब.........शायद कुछ था जो मेरा नहीं था, बस आज उसको ही लौटाने आया था।" रामप्रसाद ने जवाब दिया।
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       लघु कथा : इस्तीफा