लेख -"भगवान क्या है" Bhagwan Kya Hai
भगवान क्या है ?
एक प्रश्न जो की व्यक्ति को उद्वेलित करता है की भगवान क्या है ? क्या इसका कोई भी अस्तित्व है या नहीं, यदि हाँ तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कितना संगत है? यदि यह पश्न उठा तो स्वतः ही स्पस्ट है की किसी के होने का आभाष, संदेह है। तो फिर बार बार ये प्रश्न ही क्यों उठता है । प्रश्न पैदा होता है जिज्ञासा से या अविश्वास से भी। जिज्ञासा है क्यों की स्थूल रूप में जो शरीर है उसे संचालित करने वाली शक्ति प्रेरित करती है एव इस दिशा में जानने को उकसाती है।
इस दिशा में बाधक है देह जिसके कारण ही व्यक्ति रुक जाता है । देह संसारिक है, यह रोकती है इस दिशा में आगे बढ़ने से। देह के अपने स्वार्थ हैं, अपनी सीमाएं भी हैं । इश्वर तो है क्यों की कोइ भी प्रश्न तभी पैदा होता है जब संदेह हो। संदेह है क्यों की देह ही बाधक है। यही संदेह पैदा करती है। गुरबैले को मकरंद पसंद नहीं आता है , गुर्बेली देह ही तो भ्रमित करती है।
देह सुख की आदी हो चुकी है। इसका स्वभाव ही है सरल की और भागना । ईश्वर कठिन है क्यों की यह सत्य है और डरावना एंव कड़वा है, तभी प्रश्न उठता है । ईश्वर सत्य है और सत्य ही इश्वर है। सत्य अंदर होता है बाहर नहीं, किसी धर्म वितरक के पास नहीं। हमें अंदर जाने से डर लगता है, क्यों की कभी गए ही नहीं, जाने नहीं दिया इस देह ने ।
लेकिन देह साधन भी तो है। यही हमें ईश्वर के मार्ग की और लेकर भी जा सकती है । देह को ईश्वर की और जाने को उकसाती है वह आत्मिक शक्ति जो देह के अंदर ही है । उसका प्रकाश इतना तेज है की दूसरे सभी प्रकाश उसके सामने गौण लगते है।
सत्य की ओर बढ़ने से तस्वीर साफ़ होती चली जाती है। फिर बाहर देखने को मन नहीं करता है। गुलाब की महक हाथ में नहीं आती है। महसूस करने की बात है। वो कहती है "रे रंगरेज अब चढ़े ना रंग दूजा" ......अब तो मैं ब्रह्म नाद की सहेली हूँ । देह तुझसे मेरी दोस्ती कैसी तू रोक रही है। मुझे तो अभी बहुत दूर जाना है। राही से दिललगी कैसी ?
अब संदेह मिटने लगा की यह सत्य है और सत्य ही भगवान है।