दोस्ती Dosti Short Story Hindi
नीरज और सुधा शहर के पास वाले गाँव के प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक थे। नीरज पिछले कुछ सालों से उसी विद्यालय में कार्यरत था मगर सुधा को अभी कुछ ही समय हुआ था सरकारी नौकरी लगे। अध्यापन का सपना, सुधा ने बचपन से ही संजो रखा था। परिवार की कमजोर आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद भी उसने इस सपने को अधूरा नहीं रहने दिया। वो जाने कितने ही अभावों और पीड़ाओं को चुप रहकर पी गयी थी मगर चेहरे पर उसके
सदा एक जानी पहचानी मुस्कान रहती थी।
सदा एक जानी पहचानी मुस्कान रहती थी।
सुधा पहले तो गाँव से ही विद्यालय आती थी मगर गाँव से कोई नियमित साधन नहीं होने के कारण शहर में किराये के मकान में रहने लगी। नीरज शहर से विद्यालय मोटरसाईकिल से जाता था। एक रोज सुधा से उसने कहा कि उसे भी मोटरसाइकिल पर साथ चलना चाहिए, सुधा को भी इसमें कोई बुराई नहीं लगी। दोनों रोज साथ साथ ही विद्यालय जाने लगे। सुधा नौकरी में अभी नयी थी, सो अक्सर खाली कालांश में वो नीरज से पढाने के तरीकों और रोजमर्रा की बाते पूछा करती थी। वक्त के साथ वो एक दूसरे को और ज्यादा बेहतर तरीके से समझने लगे थे। विद्यालय में उनकी दोस्ती को लेकर तरह तरह की बाते बनाई जाने लगी थी। साथी लोग अपने अपने हिसाब से उनकी दोस्ती को किसी एक विशेष रिश्ते की परिभाषा देने में लगे रहते थे, हाँ मगर पीठ पीछे।
एक रोज नीरज ने सुधा से कहा कि नीरज की माँ उससे मिलना चाहती है। उसने सुधा को शाम को घर आने को कहा। शाम को जब सुधा नीरज के घर पहुँची तो पाया की नीरज की माँ घर पर नहीं थी। माँ के बारे में पूछने पर नीरज ने बताया कि अचानक ही कोई जरुरी काम निकल आने के कारण उसकी माँ को चाचा के घर जाना पड़ा, मगर वो जल्दी ही लौट आएगी। नीरज ने चाय चाय बनाई और सुधा को घर दिखाया। पुराने एलबम देखते दोनों इधर उधर की बाते करने लगे। काफी देर तक इन्तजार करने पर भी जब नीरज की माँ नहीं लौटी तो सुधा ने कहा कि बाहर अंधेरा होने लगा है अब उसे चलना चाहिए, वो माँ से फिर किसी रोज मुलाक़ात कर लेगी। जब सुधा जाने लगी तो अचानक नीरज ने सुधा का हाथ पकड़ लिया। सुधा शायद कुछ समझ नहीं पायी सो कुछ देर तक जड़वत खड़ी रही। सुधा ने कुछ संभल नीरज से हाथ छुड़वाया और घर से बाहर निकल आई।
सुधा पूरी रात नीरज के व्यवहार के बारे में सोचती रही, मगर वो खुद का कोई ऐसा कारण नहीं निकाल पायी जिससे वो कुछ भी समझ पाती। उसने नीरज से इस बारे में बात करने की सोची।
अगली सुबह बस अड्डे पर सुधा काफी देर तक नीरज का इन्तजार करती रही मगर नीरज उसे लेने नहीं आया। जब सुधा बस से विद्यालय पहुँची तो देखा की नीरज आज अकेले ही आ गया था। सुधा ने सोचा आधी छुट्टी में नीरज से बात करेगी। नीरज पूरे दिन सुधा से बचता रहा। पूरी छुट्टी होने से पहले ही वो विद्यालय से गायब था। नीरज का व्यवहार सुधा को अंदर तक से हिला गया था। धीरे धीरे सुधा ने भी नीरज से बात करने की आशा छोड़ दी। वक्त के साथ दोनों के बीच दूरियाँ बढने लगी। दूसरे साथी अब उनकी दोस्ती टूटने के कारणों की नयी नयी बाते बनाने में मशगूल थे, हाँ मगर पीठ पीछे।
बच्चों की वार्षिक परीक्षा का परिणाम के साथ छुट्टियाँ भी सुना दी गयीं थी। जब छुट्टियों के बाद विद्यालय फिर से खुला तो कुछ चेहरे नए थे तो कुछ वही जाने पहचाने। हैडमास्टर जी ने नीरज को अपने कक्ष में बुलाकर बताया कि पाँचवी कक्षा की हाजिरी अब उसे ही लेनी होगी क्योंकि सुधा मैडम ने अपने पिता के गाँव में ही तबादला करवा लिया है। हैडमास्टर ने उसे एक लिफ़ाफ़ा देते हुए बताया कि वो उसे छुट्टियों में सुधा मैडम ने देते हुए कहा था कि ये नीरज को दे देना।
कक्षा में जाकर नीरज लिफ़ाफ़े से पत्र निकाल पढने लगा जिस में लिखा था "..........पता है नीरज, तुमने दोस्ती को इतनी आसानी से कैसे तोड़ दिया....क्योंकि तुम्हारी दोस्ती बस कुछ स्वार्थों पर ही टिकी थी।" उस पत्र में कुल मिलाकर कोई दो तीन पंक्तियाँ ही रही होंगी मगर नीरज तो उसे यूँ पढ़े जा रहा था मानों कोई लंबी कहानी पढ़ रहा हो।
दूसरे अध्यापक के दरवाजा खटखटाने पर उसे पता चला कि उसका कालांश तो कब का बीत चुका था।