जब कभी मन नहीं लगता,
तो मैं बाहर निकल पड़ता हूँ,
मगर सच कहूँ तो,
एक अजीब से फासले के साथ,
ये मैंने नहीं बनाया,
तो फिर किसने बनाया,
मुझे कुछ पता नहीं,
हाँ, मगर कोई बात तो है,
जब भी मैं बोलता हूँ,
कुछ डरा सा रहता हूँ,
हाँ, ज्यादातर चुप ही रहता हूँ,
इसमे मेरी कोई गलती नहीं,
लोग सोच कर बोलते हैं,
समझ कर बोलते हैं,
और 'तौल' कर बोलते हैं,
उनके पास तराजू हैं,
कई तराजू हैं उनके पास,
मगर मेरे पास एक भी नहीं,
एक बार मैं उस तराजू को घर लाया था,
मगर जब भी मैंने तराजू की बाते मानी,
लगा जैसे अंदर कुछ टूट रहा हो,
बरसों का साथी कोई छूट रहा हो,
फिर मैंने उस तराजू को खुद ही तोड़ डाला,
उन लोगों से मिलकर कुछ खुशी होती है,
जिनके पास कोई तराजू नहीं,
सच मैं खुशी होती है.....,
यूँ तो शहर में कई तराजू बिकते हैं,
सबका अपना अपना,
मगर कोई 'सबका' नहीं,
कही ऐसा तराजू जो हो 'सबका',
अब तो बस उसे ही ढूंढता रहता हूँ,
'सच' तो ये है की वो लोग,
जो तराजू वाले हैं,
वो रौशन हैं.....,
मगर उनके अंदर है,
अंधेरा...बस अंधेरा !







Quite realistic creation... But Sir, you seem to be a bit disappointed...why so ?
जवाब देंहटाएंYour observation is right, but I have no direct answer, in fact I am also in search of the reasons. But we have to stop and think again that where are we going ! we have created such bad environment...where everyone hesitate to trust even his own shadow !
हटाएं@ Zeal Ji,
हटाएं"माना की साया भी तरस गया एक अदद हँसी के लिए,
मगर घर जलने के बाद राख के सिवा बचता क्या है!
ए२ चुप सौ सुख...मौन में ही सारे उत्तर छिपे हैं...सुंदर कविता...
जवाब देंहटाएंसच तो ये है की वो लोग,
जवाब देंहटाएंजो तराजू वाले हैं,
वो रौशन हैं,
मगर उनके अंदर है,
अंधेरा , बस अंधेरा !
यथार्थ को अभिव्यक्त करती एक अच्छी कविता।
बहुत गहन अभिव्यक्ति....बहुत सुन्दर
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