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बड़ा कठिन है स्वंय को जीतना Bada Kathin Hai Swany Ko Jitana

लड़ना मनुष्य की एक तरह की प्राकृतिक निशानी है। ये हमें हमारेपूर्वजों से मिली है। लड़ाई के तमाम विषय "सांसारिक" ही होते हैं। लेकिन जब लड़ना ही है तो खुद से ही क्यों ना लड़ा जाये? इस जीवन में यदि कोई सबसे कठिन कार्य है तो वह है स्वंय को जीतना, स्वंय पर नियंत्रण करना। गाड़ी में ब्रेक लगाकर इंजिन चालू करने के सामान ही सारे कार्य निरर्थक होंगे यदि स्वंय पर नियंत्रण ना रख पाए तो। समय किसी के लिए विश्राम नहीं लेता है, समय जैसा चलता आया है उसी गति से चलता रहता है, समय हमें आगे की और धकेलता है, आत्मा में मौजूद ईश्वर का अंश समग्रता को पाने को व्याकुल करता है। वह हमें प्रेरित करता है की जो हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं वो ही मात्र सत्य नहीं है। ऐसी परिस्थिति में देह के अंदर बैठे शत्रु, जो कुछ कुछ दोस्त जैसे लगते हैं, उसे रोकते है, उसे भ्रमित करते हैं। ये शत्रु हम पर ही आश्रित होतें हैं और हमें ही भ्रम जाल से मुक्त भी नहीं होने देते हैं। यदि ये ऐसा ना करें तो इनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। कोई शराब खोर भला क्यों चाहेगा की शराब की भट्टियां सदा को बंद हो जाए ? लोभ, लालच, मद, माया, काम, क्रोध, ये हैं हमारे शत्रु, जो इस देह में दोस्त बन कर रहते हैं। इनसे निपटना जितना आसान लगता है उतना होता नहीं। जितना गहरा इनका आवरण हम पर होगा उतना ही हमें ये बातें "हास्यास्पद" लगेंगी। जब आँखों पर काला चश्मा लगा हो तो पूरा परिदृश्य ही काला नजर आने लगता है। देह के अंदर मौजूद सत्य के अंश से ये स्वंय को ज्यादा प्रबल दिखाने की असफल कोशिश करतें है। । देह भी इनका ही साथ देती  है क्यों की यह स्वंय "आराम पसंद" होती है । इसे सत्य की और बढ़ने में परेशानी होती है क्यों की इसके पुराने साथी छूटने जो लगते हैं। पुराने साथियों ने इसे खूब बरगला रखा था । लेकिन एक दिन इस नश्वर देह को तो यही पर ख़ाक होना है, तब ये दोस्त सबसे पहले भाग छूटते है, कुछ पंक्तियाँ है-

तज दिए प्राण, काया कैसी रोई,
मैं जाना मेरे संग चलेगी,
याही ते काया मैंने मल मल धोई
मोटी झोटी दरी मंगाई
चढा काठ की घोड़ी 
चार जने तोये लेके चाले
फूँक दई जैसे फागुन की होली 
तज जिए प्राण, काया कैसी रोई
चलत काया कैसी रोई
में जाना मेरे संग चलेगी
यही ते काया मैंने मल मल धोई 

इसी कारण ऋषि मुनि खुद के शरीर को तपाया करते थे, शरीर को यातना देते थे ताकि इसके पुराने छद्म दोस्तों से इसका साथ छूट जाये। इन शत्रुओ को बलपूर्वक बाहर लाना पड़ता है, जब कोई इनको बाहर निकालना चाहता है तो ये स्वंय को "दोस्त" एंव "सुभचिंतक" बना लेते है। ये छद्मावरण में माहिर होते हैं।  कीचड़ को जितना जल्दी हो सके धूप दिखानी चाहिए वरना वो अंदर ही अंदर खुद को बढाता है।

यदि इन शत्रुओ का पूर्णतया विनाश ना किया जाए तो ये आत्मा को सत्य की ओर बढ़ने नहीं देते। इनसे जितने दूर होते जायेंगे उतने ही सत्य के करीब भी आते जायेंगे। यदि मुझे किसी के खोने या पाने का डर ना हो तो मैं निष्पक्ष निर्णय ले पाउँगा अन्यथा मेरे निर्णय में ये शत्रु "मिश्रित" हो जायेंगे। निर्णय ये लेते हैं, अपने पक्ष को मजबूत करके ।

इन शत्रुओ से मुक्ति के बाद " हमारी कथनी और करनी" में कोई अंतर नहीं रह जायेगा। हम जो भी कहेंगे, करेंगे उसमे सत्य का वाश होगा।
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