लाग्या रे बाण म्हारे Lagya Re Ban Mhare Poem
शब्दवानी "लाग्या रे बाण म्हारे" का हिंदी रूपांतरण
लाग्या रे बाण म्हारे,
शबद गुरा रा, शैल सतगुरु रा,
घायल हुवे ज्यारी ए बाता,
निर्मल हुवे ज्यारी ए बाता।
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शब्दार्थ :- लाग्या-लगना, छूना, म्हारे-मेरे, शबद-ज्ञान, ज्यारी-उनकी, निर्मल-ज्ञान से प्राप्त असीम एकांत
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जब सतगुरु के ज्ञान रूपी बाण लगतें है जो जीवात्मा घायल हो जाती है, क्यूँ कि वह तो सांसारिक मोह माया कि जंजाल में जो फँसी है। जीवात्मा को जब वास्तविक उद्देश्य का बोध होता है, तब वह पूर्णता को प्राप्त होने को व्याकुल हो जाती है। धन्य है वो गुरु जिसने पूर्णता से मिलने का मार्ग, जीवन का वास्तविक उद्देश्य बताया। जब ज्ञान रूपी बाण जीवात्मा को लग जाते हैं तो वह निर्मल हो जाती है। उन्ही शत्रुओं से जिनको उसने अपने अंदर मित्र समझ आश्रय दिया है। आत्मा से जैसे जैसे बोझ हटने लगते हैं तो स्वंय ज्ञात से अज्ञात कि और बढ़ने लगती है। जिस दिन वह अज्ञात को प्राप्त हो जाती है, निर्मल हो जाती है।
परणी नार पिया री गम जाणे,
काई जाणे हो नार कुवारी बाता,
बिना रे विवेक फिरे रे भटकती,
इन कारण खावे जग री लाता।
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शब्दार्थ :- परणी-शादीशुदा देह (ईश्वर से विवाह, मिलाप), नार-स्त्री, विवेक-गुरु ज्ञान, लाता-लातों की खाना(सांसारिक दुर्दशा को प्राप्त होना)
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अज्ञानता चाहे जिस क्षेत्र में भी हो, हितकर नहीं है। "अज्ञानी को केशर दी, तेल में तलेगो" केशर के उपयोग कि जानकारी के अभाव में उसके गुण कि पहचान कैसे हो सकती है। शादीशुदा स्त्री(साधक) ही अपने साजन (ईश्वर)के दुःख दर्द का अनुमान लगा सकती है, कुवांरी स्त्री को इसका ज्ञान नहीं हो सकता है। विवेक के अभाव में वो भटकती फिरती है, इसी कारण, संसार के दुखों कि पात्र बनती है। जीवात्मा जब सांसारिक मोह का त्याग कर देती है, उसे स्वंय कि "अज्ञातता" का जटिल बोध होता है।
सतवंती नार भइ बुधवंती,
बा जाणे पीउजी री बाता,
रंग महल में ताली लागी,
भूल गयी कुबधा री बाता।
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शब्दार्थ :- सतवंती-सत्य का अनुशरण करने वाली, बुधवंती-ज्ञान को प्राप्त, ताली-ताला लगना, कुबधा-सांसारिक सुखों से प्राप्त दुख।
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जीवात्मा के द्वारा इन शत्रुओं का त्याग करने पर रंग महल में ताला लग जाता है, उसे यह बोध हो जाता है कि सांसारिक एश्वर्य, सुख, धन प्राप्ति उसका उद्देश्य नहीं है। उसे तो कहीं दूर जाना है। इस अवस्था में आकर वो इन शत्रुओं का त्याग कर देती है। जैसे जैसे भक्ति का मार्ग नजदीक आने लगता है, आत्मा निर्मल हो जाती है, समस्त दुखों का अंत हो जाता है। आत्मा शून्य की अवस्था को प्राप्त होने को व्याकुल होने लगती है। इस अवस्था में जा कोई तर्क होता है ना कोई भ्रम।
धरा आसमान भले डिग जाओ,
सूख जाओ रे समंदर सारा,
मैं म्हारे गुरु थाने कदे नहीं भूलु
मैं म्हार पिउ थाने कदे नहीं भूलु
थे म्हारे प्राणा रा आंटा ज्यारा।
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शब्दार्थ :- कदे-कभी, पिउ-गुरु, आंटा-घुले मिले।
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गुरु के बताए मार्ग पर चलने पर उसका विश्वास और दृढ होने लगता है। धरती, आसमान भले ही डिग जाये, सम्पूर्ण समंदर भले ही सूख जाये, लेकिन साधक गुरु के बताए मार्ग से भटक नहीं सकता है। गुरु तो साँसो की माला में समाहित हो चुके हैं।
प्रेम पोल में सतगुरु तापे,
लाग रही मिलने री तांता,
गुरु प्रताप भने रविदासा,
ताल में ताल मिलाई जाता।
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शब्दार्थ :- प्रेम पोल-प्रेम रूपी पोल, तापे-तप करना, मिलने री तांता-ईश्वर प्राप्ति हेतु उतावलापन, ताल में ताल-अनुसरण करना।
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सतगुरु महाराज भक्ति का तप कर रहे हैं, अज्ञात से मिलने की आतुरता है, साधक भी गुरु की ताल में ताल मिला रहा है। जब गुरु के प्रति सच्ची आस्था हो तो साधक और गुरु के बीच का फासला समाप्त हो जाता है। साधक गुरु के बताए मार्ग पर अबूझ होकर निकल पड़ता है।
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