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"पाखंड छोड़ भाई, असल भक्ति ले अपनाय"


एक शब्दवानी शीर्षक "पाखंड छोड़ भाई, असल भक्ति ले अपनाय" जो सीधे उन लोगों पर वार करती है धर्म के नाम पर नित नए पाखण्ड रचते हैं, वास्तविक ईश्वर  भक्ति से कोसों दूर हैं।
जटां बढ़ाए हरी ना मिले,
हर कोई लेवे बढ़ाए,
जटां बढ़ावे वन रा रींछडा,
कब अमरा पुर जाय। 
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शब्दार्थ :- जटां -बाल (सर के बाल बढ़ाना), रीछड़ा-भालू, अमरापुर-ईश्वर (स्वर्ग)। 
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बाल बढ़ाना भक्ति नहीं, केवल ढोंग है, ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग नहीं है। यदि बाल बढ़ाने से ही ईश्वर की प्राप्ति हो जाये तो जंगल में रहने वाले भालू जिनके शरीर पर लंबे लंबे बाल होते हैं, वो कब ईश्वर से मिल के आते हैं ?
शीश मुंडाया हरी ना मिले,
हर कोई लेवे मुंडाय,
शीश मुंडावे वन री भेड्की,
कब अमरापुर जाय।
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शब्दार्थ :- शीश मुंडाया- सर मुंडाना (सफाचट्ट), भेड्की -भेड़। 
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सर के बाल कटा, सफाचट्ट निकाल चोटी बढ़ा लेना भी पाखंड है, यदि ऐसे करने से ही ईश्वर की प्राप्ति होती हो तो भेड़ तो हर छठे महीने कतरी जाती है, वो कब ईश्वर से मिल के आती है ?
बानी लागाया हरी ना मिले,
हर कोई लेवे लगाए,
नित बानी लगावे गधेड़ा,
कब अमरपुर जाये।
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शब्दार्थ :- बानी-राख़, गधेड़ा-गधा।
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कई साधक अपने शरीर पर राख़ रगड़कर स्वाँग रचते है, यदि राख़ रगड़ने मात्र से ही ईश्वर की प्राप्ति होती हो, तो गधे तो रोज राख़ मैं लोट-पलोट लगाते हैं, वो कब ईश्वर से मिल के आते हैं ?
गुफा खुदाया हरी ना मिले,
हर कोई लेवे खुदाए,
गुफा खोदे वन रा उन्दरा,
कद अमरापुर जाये। 
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शब्दार्थ :- उंदरा - चूहा। 
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गुफा खोद कर भक्ति करना निरा ढोंग है, खोदने से ही यदि ईश्वर की प्राप्ति होती हो, तो चूहा तो रोज खोदने का ही कार्य करता है, वो कब ईश्वर से मिल कर आता है ?
प्रश्न है की फिर ईश्वर प्राप्ति का मार्ग क्या है? ईश्वर प्राप्ति का मार्ग जो समस्त शब्दवानियों का सार है :-
"निः स्वार्थ भाव से, मानव मात्र की सेवा"