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ईश्वर तुम्हारी ईमानदारी बरकरार रखे Ishwar Tumhari Imandari Poem Lyrics


प्रथम लघु कथा..............

आज रामप्रसाद पूरी तरह से थक चुका था, कारण था कार्यालय में सारे दिन की व्यस्तता। घर लौट कर आने पर रामप्रसाद ने गौर किया की उसकी जेब में फोन नहीं है। फोन से भी ज्यादा कीमती थे उसमें संचित संबन्धित व्यक्तियों के दूरभाष संख्या। आनन फानन में रामप्रसाद दुबारा विद्यालय के लिए रवाना हो गया। रात घिरने को थी। रास्ते में रामप्रसाद ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था की उसे उसका फोन वापस मिल जाये और सोच रहा था की उसे जब भी कोई वस्तु मिली है, उसने वापस मालिक को लौटाई है, पता नहीं आज उसे उसका फोन मिलेगा या नहीं.....। कार्यालय में काफी ढूँढने पर भी फोन नहीं मिला। साथियों से पूछने पर किसी ने भी फोन देखने से इंकार किया। मानव प्रकृति अनुसार रामप्रसाद के मन में भी "शक" दौड़ने लगा। थक हार कर जब रामप्रसाद गाँव जाने को बढ़ने लगा तो उसे सामने से एक अध्यापक महोदय किशना राम जी आते दिखाई दिये। रामप्रसाद के एक बार पूछने मात्र से ही उन्होने अपनी जेब में से फोन निकालते हुये कहा लीजिये आपका फोन, ये एक छात्र विकास को सड़क पर पड़ा मिला था। फोन देखते ही रामप्रसाद के जान में जान आई। रामप्रसाद ने गुरुजी को धन्यवाद दिया और छात्र को अगले रोज सम्मानित करने की मंशा जताई।

घर लौटते समय रामप्रसाद सोच रहा था की वो छात्र कितना भला होगा जिसने उसका फोन गुरुजी को लौटा दिया.........गुरूजी ने भी तुरंत फोन लौटा दिया.....ये सच्ची और स्वार्थहीन ईमानदारी है.......कहीं ना कहीं अभी भी ईमानदारी जीवित तो है।

घर लौटकर रामप्रसाद ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और उसके द्वारा साथियों पर झूठा शक करने के लिए क्षमा भी मांगी।


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द्वितीय लघु कथा...........

वीर सिंह जी, रामप्रसाद के परम मित्र थे। एक रोज यूं ही ईमानदारी पर चर्चा चल रही थी। वीर सिंह जी ने एक किस्सा सुनाया, जब वो सेना में हवलदार पद पर कार्यरत थे। बात उस समय की है जब वीर सिंह जी कलकत्ता में सशत्र सेना की एक टुकड़ी में तैनात थे। घर से छुट्टी काटकर वापस कलकत्ता लौटते समय उन्होने अपना थैला ट्रेन में ऊपर की सीट पर रख दिया और स्वंय नीचे पड़ी खाली सीट पर बैठ गए। स्टेशन पर उतरकर उन्होने रिक्शा किराया किया। रिक्शे में आधी दूरी तय करने पर उन्हे ध्यान आया की उनका थैला जो ट्रेन में ऊपर की सीट पर रखा था, लाना भूल गए हैं, जिसमें उनका सेना का परिचय पत्र भी था। रिक्शे को वापस स्टेशन की और दौड़ाया और स्टेशन पर कर्मचारियों से थैले के बारे में पूछताछ की लेकिन किसी ने भी थैला नहीं देखा था। वीर सिंह जी उदास हो आए साथ ही मन ही मन एक भय भी था की इसकी सूचना उच्च अधिकारियों को देनी पड़ेगी। सेना का परिचय पत्र खो देने पर 15 दिनों तक जेल की हवा भी खानी पड़ सकती थी।

आखिर हार मान कर जब वीर सिंह जी, वापस जाने लगे तो उनके मन में एक खयाल आया की क्यों नहीं जहां गाड़ी सफाई के लिए खड़ी होती है, जाकर इस संबंध में पूछताछ की जाये। जब वीर सिंह जी वहाँ पहुंचे तो सामने से एक झाड़ू वाला आता दिखाई दिया। वीर सिंह जी के थैले के बारे में पूछने पर उसने कहा की कलकता मेल की सफाई उसी ने की थी, लेकिन उसमें कोई थैला तो नहीं मिला लेकिन एक परिचय पत्र जरूर मिला था।

वीर सिंह जी को मानो वो झाड़ूवाला साक्षात ईश्वर नजर आया। लक्षमन सिंह जी ने झाड़ू वाले के पैर पकड़ कर कहा "भाई तुम्हारा भगवान भला करे, मुझे मेरा परिचय पत्र मिल गया.....।

वीर सिंह जी ने सौ रुपए झाड़ूवाले को देकर कहा "ईश्वर तुम्हारी ईमानदारी बरकरार रखे"


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