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28.9.12

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त्रिपाठी बाबू जी




रेखा कई दिनों से महसूस कर रही थी कि विपिन के साथ सब कुछ ठीक नहीं था। पूछने पर विपिन उसे बातों ही बातों में टाल देता। आज जब विपिन ऑफिस से लौटा तो रेखा ने फिर पूछा " क्या बात है विपिन, कुछ दिनों से तुम नोर्मल नहीं हो, अगर कोई बात है तो बताओ...हो सकता है मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ। " नहीं........ नहीं, ऐसी कोई खास बात नहीं.... हाँ, इन दिनों दफ्तर में काम कुछ ज्यादा है। जिंदगी फाइलों में ही कहीं गुम हो गयी है... काम से नफरत नहीं, मगर जिंदगी की एक सच्चाई यह भी है कि बहुत से काम न चाहते हुए भी करने पड़ते हैं। इसका कोई इलाज भी नहीं, अब नौकरी तो छोड़ नहीं सकता......लेकिन डर है मैं भी कहीं सरकारी चील कव्वों जैसा न होकर रह जाऊं। खैर छोड़ो, देखो, तुम तो जानती हो त्रिपाठी बाबू जी के बारे में, कितने नेक इंसान थे। उनकी ईमानदारी पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता, सब जानते हैं उन्हें गबन के केस में झूठा फसाकर सस्पेंड किया गया है। मगर किसी की हिम्मत कहाँ जो सच कह सके। दूसरों की क्या बात......मैं भी चुप ही तो हूँ......सब कुछ जानते हुए। लेकिन रेखा, सच तो ये है की अफसर तो अफसर की सुनता है, जैसा कहे वो वैसा ही मानता है। हम जैसे छोटे लोगों की सुनता ही कौन है, और अगर उनकी हाँ में हाँ ना हो तो पत्ता कटते देर नहीं लगती। त्रिपाठी जी का एक खत आया है मेरे नाम......"

"प्रिय दोस्त विपिन, मैंने तुम्हारे फोन पर कई बार कोशिश की मगर किसी ने नहीं उठाया तो सोचा तुम्हे खत ही लिख दूँ। मुझे पता है कि तुमने भी दूसरे साथियों की तरह मेरा साथ नहीं दिया, लेकिन मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं। हाँ, भले ही तुमने मेरा साथ न दिया हो मगर मेरा कुछ बुरा भी तो नहीं किया। मैं तुम्हारे चुप रहने के कारण समझ सकता हूँ। 

मेरे कई साथी तो ऐसे भी निकले जिन्हें मैं अपना दोस्त समझता रहा, उन्होंने मेरा साथ देने की बजाय सच्चाई को दबाने की कोशिश की। अब, लोग तो ऐसे ही हैं बस अपना काम निकल जाए, दुनिया जाए भाड़ में लेकिन वो नहीं समझते कि आखिर उनको भी उसी माहौल में रहना होगा जैसा हम सब बना रहे हैं। विपिन मैं जानता हूँ कि लोग मुझे पागल समझते हैं, जब मैं अफसरों से भिड बैठता हूँ, मगर मेरा सोचना है कि अंदर से खोखले हो चुके इन बेगैरत लोगों से कैसा डरना।ये लोग बस डराते हैं, और हम डरते हैं। आज के वक्त कि शायद यही कमी है कि बुरे लोगों का संगठन है और अच्छे लोग मान मर्यादा, भले बुरे और मजबूरियों का हवाला देकर चुप हो जाते हैं। वैसे मैं तुम्हे बता दूँ कि मैं अभी भी सुधरा नहीं हूँ और मुझे इसकी जरुरत भी नहीं। कभी कभी दुःख होता है जब एक विचार आता है कि हमने जीवन को कितना मुश्किल बना दिया है। सोचो सब लोग कितने डरे हुए से लगते हैं। कहीं हम जिन्दा मुर्दे तो नहीं बनते जा रहे....विचार करने कि बात हैं कि हम क्या लेकर जायेंगे और क्या देकर ? मुझे तो मेरे अपने कब का अकेला छोड़ गए, शायद परिवार और जिम्मेदारियों को तुम ज्यादा बेहतर समझते हो........चलो छोड़ो.....यहाँ अभी नया हूँ, सब लोग मुझसे दूर ही रहते हैं, कहते हैं आदमी से पहले उसके अवगुण पहुँच जाते हैं, मेरे लिए तो ये भी अच्छा है, लिखने का वक्त मिल जाता है। 

विपिन, मैंने तुम्हारी आखों में सच की चमक देखी है, हाँ अभी वो कहीं खोई सी लगती है। मगर एक रोज ऐसा भी आएगा जब तुम सच को बगैर दायें बाएं देखे कह पाओगे। कभी इधर आना हो तो बताना। "

-त्रिपाठी।

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Comments
3 Comments
3 टिप्पणियां:
  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (30-09-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  2. सब अपने ही स्वार्थ में लीन रहते हैं .... अच्छी कहानी

    जवाब देंहटाएं

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