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मुखड़ा क्या देखे दर्पण में............



शबद बाणी (शब्द वाणी) "मुखडा क्या देखे दर्पण में" का हिंदी रूपांतरण।

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चेत चेत नर चेत रे,
सिर पर भंवे काल,
पकड़ ले जात रे, 
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में
कागज की एक नाँव बनाई,
भाई छोड़ी गहरा जल में,
धर्मी धर्मी नर तो पार उतरिया,
पापी डूबा बीच भंवर में, 
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में
पेंच मारकर बांधे पगड़ी,
रे तैल लगावे जुलफन में,
इण देह माथे घास उगेला,
भाई ढ़ोर चरेला वन में, 
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में
आम्ब री डाली सू कोयल राजी,
सुआ राजी वन में,
घर वाली तो घर में राजी,
तपसी राजी रे वन में
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में
खोटी कर कर माया जोड़ी,
जोड़ जोड़ धारी बर्तन में,
कवे कबीर सुनो भाई साधो,
रवेली मनड़े री मन में
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में
***   ***   ***   ***   ***   ***
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चेत चेत नर चेत रे,
सिर पर भंवे काल,
एक दिन पकड़ ले जात रे, 
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शब्दार्थ:- चेत - संभल, जाग, ज्ञान प्राप्त कर। 

इस संसार में माया का जाल विभ्रम की स्थिति पैदा करता है, जीवन के वास्तविक उद्देश्य को विश्मृत करता है। जो ज्ञात है वो सांसारिक है साथ ही  काल्पनिक एंव अस्थायी भी है। ज्ञात होकर अज्ञात की प्राप्ति निरर्थक है। एक दिन काल का दूत जो सिर पर लगातार मंडरा रहा है, पकड़ कर ले जाएगा। काल के लिए राजा और रंक एक समान हैं। कबीर साहब ने कहा है "माली आवत देख के कलियन करी पुकार, फुले फुले चुन लीनी , काली हमारी बार"। मरना एक दिन सभी को है, कोई आज, कोई कल। मरने से पहले हरि के नाम का सुमिरन कर ले ताकि जब शरीर साथ छोड़ दे तो पछतावा ना हो। माया सांसारिक है, साथ जाने वाली नहीं।  तृष्णा कभी नहीं मरती, देह नश्वर है।  "कबीर माया पापिनी हरि सु करे हराम, मुखी कड़ाई कुमति की, कहन ना देई राम।"
   
"सोना री गढ़ लंका बनी रे, 
रूपा रा दरबार,
रत्ती भर सोना ना मिला रे,
रावण मरती बार।"

जिस रावण का नगर  सोने से निर्मित था, हीरे मोतियो से दरबार सुशोभित था, जब वो मरा तो रत्ती भर भी उसके साथ नहीं गया, साथ जायेगा तो बस हरि का नाम। 

"हाथां धरती तौलता,
दिन में सौ सौ बार,
वो मानुष मिट्टी भये,
भांडा घड़े रे कुम्हार"

घमंड अज्ञान से पैदा होता है। घमंड ही ज्ञान प्राप्ति में बाधक है। रावण विद्वान पुरुष था, शास्त्रों का ज्ञान था, असंख्य शक्तियों का स्वामी था, लेकिन साथ ही घमंडी भी। घमंड ही उसके अंत का कारण बना। जिनको अपनी शक्ति पर घमंड था, जो इस धरती को दिन में सौ सौ बार तौलते थे, वो समाप्त हो गए, मिट्टी में मिल गए, उनकी तन की ख़ाक हुई मिट्टी से कुम्हार घड़ा घड़ता है। 

"माया मरी ना "मैं" मरा,
मर मर गया शरीर,
आशा तृष्णा ना मरी,
कह गए दास कबीर"

"कबीरा वो धन संचिए,
जो आगे को होय,
शीश चढ़ाये पार ले,
जात ना देखा कोय"
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"आगे का धन" है सद्कार्यों से अर्जित "आत्म संतोष" ये अज्ञात है, इसे किसी परिभाषा में ढालना असंभव है। जब हम इन सांसरिक बंधनों को तोड़कर अज्ञात की और बढ्ने लगते हैं, तो अज्ञात की अनुभूति होने लगती है, जिसको परिभाषित नहीं किया जा सकता है। महान दार्शनिक एंव संत "ओशो"  के अनुसार " ईश्वर को किसी ने भी पाया नहीं है, देखा नहीं है, जिसने देखा या पाया वो पत्थर की भांति गहरे मौन में चला गया है, वो बताने की अवस्था को पार कर चुका हैं।" 

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मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में

जब मन में दया धर्म ही ना हो तो साफ सुथरे चेहरे की कोई सार्थकता नहीं है। मन में दया धर्म होने से हम दूसरों के प्रति सकारात्मक सोच रख पायेंगे, सद्कार्य कर पायेंगे। दया और  धर्म  मन के आभूषण हैं।

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कागज की एक नाँव बनाई,
भाई छोड़ी गहरा जल में,
धर्मी धर्मी नर तो पार उतरिया,
पापी डूबा बीच भंवर में, 
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में

जीवन तो क्षण भंगुर है अस्थाई है, इस देह का नाश तो एक दिन होना है। ये जीवन कागज की नाँव के समान है। कागज की नाँव में सवार वे सभी व्यक्ति जिनहोने अपना जीवन ईश्वर को याद करते हुये बिताया, परोपकार किया, सद्कार्यों में लगे रहे, वे सभी पार लग गए, मोक्ष को प्राप्त हो गए, इसके विपरीत जिनहोने अपने जीवन में धर्म, दान, दया, परोपकार को महत्व नहीं दिया, वे सभी बीच मझदार में, भंवर में ही डूब गए।
  
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पेंच मारकर बांधे पगड़ी,
रे तैल लगावे जुलफन में,
इण देह माथे घास उगेला,
भाई ढ़ोर चरेला वन में, 
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में
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शब्दार्थ:- पेंच मारकर - गोल गोल घुमा कर, जुलफन- बाल, इण- इस, माथे-ऊपर, उगेला-उगेगा, ढ़ोर-पशु।

व्यक्ति शरीर को और अधिक सुंदर एंव आकृषक दिखाना चाहता है, ये काम से प्रेरित भावना है। घूमा घूमा के पगड़ी बांधता है, तरह तरह के तैलों से बालों को सजाता है। इस देह को तो खाक होना है, इसकी राख़ पर घास उगेगी जिसको पशु चरेंगे। जब ये शरीर नाशवान है तो फिर इसे क्या सजाना, क्या सवारना। सच्ची सुंदरता तो पवित्र विचारों की है। देह में तो स्थान स्थान पर कचरा भरा है। सुंदर बनाना ही है तो अपने मन को बनाना है, उसमे यदि पवित्र विचारों का संचार होगा, तो मुख मण्डल पर ज्योति स्वंय विराजमान हो जाएगी।  

"नहाये धोये क्या हुआ,
जो मन मैल ना जाए,
मीन सदा जल में रहे,
धोये बांस ना जाये"

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आम्ब री डाली सू कोयल राजी,
सुआ राजी वन में,
घर वाली तो घर में राजी,
तपसी राजी रे वन में
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में
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शब्दार्थ:- आंबा - आम , सु- से, राजी- प्रसन्न, सुआ- तोता, घरवाली-पत्नी, तपसी-तपस्वी। 

इस संसार में विचारों से प्रेरित होकर ही व्यक्ति स्वंय को "सुखी" या "दुखी" मान लेता है। सुख या दुख जैसी कोई वस्तु इस संसार में है ही नहीं। ये तो हमारी कल्पना का ही चरितार्थ रूप है। सुख को अच्छा या फिर दुख को बुरा हमने ही तो बनाया है। हो सकता है की हमारे लिए जो सुख का कारण हो, वही दूसरे के लिए दुख का कारण हो। हमें बरसात अच्छी लग सकती है, लेकिन जिनके पास टूटा फूटा आशियाना हो, उनके लिए तो बरसात किसी मुसीबत से कम नहीं है। हमारी सोच ही यह तय करती है की हम सुखी हैं या फिर दुखी। कोयल आम की डाली से राजी है तो सुआ वन में, घर वाली घर में राजी है तो तपस्वी व्यक्ति को इस संसार से कुछ लेना देना नहीं है, वो तो वन में भी राजी है। वन में किसी प्रकार की दैहिक सुख सुविधाओं के अभाव में भी वो वहाँ सुखी है? 
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खोटी कर कर माया जोड़ी,
जोड़ जोड़ धारी बर्तन में,
कवे कबीर सुनो भाई साधो,
रवेली मनड़े री मन में
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
दया धरम नहीं तेरे मन में
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शब्दार्थ:- खोटी- अनैतिक कार्यों से अर्जित धन, बुरा कार्य, जोड़ जोड़ - इकट्ठा किया, कवे-कहे, रवेली- रहेगी, मनड़े री मन में- मन की तो मन में ही रह जाएगी। 

जीवन यापन के लिए धन की आवश्यकता सभी है, लेकिन धन कमाने के भी दो मार्ग हैं, एक तो ईमानदारी से कमाया गया धन और दूसरा चोरी, अनैतिक कार्यों, लूट खसोट, भ्रस्टाचार से कमाया गया धन। ये धन, माया तो यहीं रह जानी है, साथ जाने वाली नहीं। मन की मन में ही रह गयी। मन की से तात्पर्य है "जीवन का उद्देश्य जो ईश्वर का गुण गाने, मानव सेवा, परोपकार करने से है"। 

"सुरता मत कर मान गुमान,
काया तो थारी ऐब सु भरी,
सुरता थारी म्हारी ऐब मिट जाय,
हरी शरण तू आय तो सरी"

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