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तीर्थ Teerth



जब ईश्वर इस जगत के कण कण में व्याप्त है, तो एक प्रश्न उठता है की तीर्थ करने का फिर औचित्य  क्या है ? भोगवादी व्यक्तियों के मुताबिक ईश्वर कुछ नहीं है ये तो मात्र मनुष्य के मस्तिष्क की एक आधारहीन उपज मात्र है जो इसने स्वंय के भय को दूर करने के लिए बनाई है एंव जिसका अस्तित्व ही न हो उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती है, प्राप्ति के लिए भटकना व्यर्थ है।  मनुष्य की उत्पत्ति ही जीव विज्ञान का नतीजा है। ऐसे लोगों को भी इनके जीवन के अंतिम पड़ाव में ईश्वर के प्रति आस्था रखते देखा जा सकता है।

तीर्थ करने से क्या प्राप्त होता है? क्या फायदा होता है? कुछ प्राप्ति के लिए किया गया तीर्थ क्या असफल है ? शास्त्रों में इस हेतु कई बातें बताई गयीं हैं जो काफी जटिल हैं।

तीर्थ से ईश्वर की प्राप्ति हो या न हो लेकिन मन को अथाह शांति, स्थिरता मिलती है। तीर्थ "पूर्णता" को स्वीकार करने की और पहला कदम है। हमारे अंदर की अपूर्णता, पूर्णता में समाना चाहती है, वैसे ही जैसे नदी का पानी समुद्र की और बड़ी ही बेचैनी से बढा चला जाता है, जब तक की वो समुद्र में मिल नहीं जाता है उसे चैन नहीं पड़ता है। वो ही शक्ति  हमें इस और उन्मुख करती है जो की अदृश्य है। तीर्थ है ही अहम् की पराजय ।

जिसके यहाँ से आये थे, उसके पास वापस जाने से शर्म कैसी?

शर्म है क्यों की यहाँ जिस उद्देश्य के लिए आये थे वो पूरा नहीं किया, कुछ और ही करने लगे.... ये अपराध बोध ही रोकता है-----लेकिन फिर भी हमें वापस स्वीकार किया जाता है।

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