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21.4.11

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भगवान ने मेरे कान में एक बात कही




रामप्रसाद के मन में ईश्वर की अवधारणा बिलकुल साफ और अडिग थी। रामप्रसाद का मानना था की ईश्वर को किसी मंदिर की आवश्यकता कभी नहीं होती, और न ही किसी एजेंट की ही, वो तो जग के कण-कण में बिखरा हुआ है। जिस तरह से फूल की खुसबू हाथों में नहीं आती उसी तरह ईश्वर को सद्कार्य करके ही महसूस किया जा सकता है। वो तमाम तरह की परिभाषाओं से परे है। किसी भौतिक स्वार्थ से प्रेरित भक्ति भी कोई मायने नहीं रखती। रामप्रसाद मंदिर जाने में विश्वाश नहीं रखता था लेकिन माँ के बार बार कहने पर रामप्रसाद मंदिर जाने को आखिरकार राजी हो गया। रामप्रसाद कुछ काम बस इस लिए भी कर लेता था क्यों की वो माँ के बताए होते थे। माँ ने बताया की जब रामप्रसाद घर पर नहीं था तो उसके दोस्त रमेश का टेलीफोन आया था, वो भी मंदिर में भगवान के दर्शन करने के लिए उनके साथ जाने वाला था। रमेश को "नेता" तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन "नेता जैसा" जरूर कहा जा सकता था। तमाम तरह के विभागों में उसकी अच्छी जानकारी थी। एक बात , जिस पर रमेश को बहुत ही गुमान था वो थी जिला कलेक्टरी में पीए साहब से जान पहचान।

सभी लोग दर्शन के लिए मंदिर रवाना हुए। मंदिर पहुँचने पर पता चला की काफी दूर तक भक्तजन कतार बना कर बेसब्री से अपनी बारी के आने का इंतजार कर रहे थे। रामप्रसाद भी माँ के साथ कतार में लग गया लेकिन रमेश को शायद कतार में खड़ा होना पसंद नहीं था। उसने तुरंत जेब से मोबाइल फोन निकाला और कलेक्टर साहब के दफ्तर में फोन घुमाया। कुछ ही देर में एक पुलिस वाला आया और रमेश से कहा की उनके लिए कलेक्टरी से फोन आया था, वो उन्हें पुजारियों के दरवाजे से दर्शन करवा देगा। रमेश ने रामप्रसाद से कहा की उसे भी माँ को लेकर उसके साथ दूसरे दरवाजे से दर्शन करने को चलना चाहिए। रामप्रसाद के मना करने पर वो माँ को लेकर दर्शन करने चल पड़ा। माँ तो रामप्रसाद के स्वभाव से अच्छी तरह वाकिफ थी, इसीलिए उसने रामप्रसाद से साथ जाने के लिए एक बार कहा तक भी नहीं। कुछ ही देर में रमेश और माँ दर्शन करके लौट आए। वे दोनों रामप्रसाद को हिकारत की नजरों से देख रहे थे जैसे रामप्रसाद ने कोई अपराध किया हो क्यों की रामप्रसाद अभी भी कतार में वहीं खड़ा था, जहां वो उसे छोड़ कर गए थे।

रामप्रसाद की बारी आते आते रात के आठ बज चुके थे। आखिरकार जब सब लोग दर्शन कर घर लौट आए। रमेश रामप्रसाद की नादानी पर कुछ नाराज सा दिखाई दे रहा था। माँ भी कुछ नहीं बोल रही थी। रामप्रसाद ने रमेश से कहा  "रमेश आज भगवान ने मेरे कान में एक बात कही।" रमेश ने रामप्रसाद को घूर कर पूछा " क्या... कान में बात कही........क्या बात कही तुम्हारे कान में ?"

रामप्रसाद ने जवाब दिया "भगवान ने मुझे कहा की जब तुम्हारा दोस्त रमेश या उस जैसे दूसरे लोग कतार तोड़ कर मेरे दर्शन करने चोर दरवाजे से सीधे अंदर चले आते हैं तो मैं मंदिर छोड़कर बाहर घूमने निकल जाया करता हूँ।"

रामप्रसाद की बात सुनकर लगा की रमेश के पास जवाब देने को कोई शब्द ही नहीं था।
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       लघु कथा : इस्तीफा                                                                                                                   



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रहने वाला : सीकर, राजस्थान, काम..बाबूगिरी.....बातें लिखता हूँ दिल की....ब्लॉग हैं कहानी घर और अरविन्द जांगिड कुछ ब्लॉग डिजाईन का काम आता है Mast Tips और Mast Blog Tips आप मुझसे यहाँ भी मिल सकते हैं Facebook या Twitter . कुछ और

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Comments
12 Comments
12 टिप्पणियां:
  1. बहुत बढ़िया कहानी लिखी है अरविन्द भाई !
    हार्दिक शुभकामना .....

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  2. बहुत सुंदर संदेश देती लघु कथा !

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  3. अंध विश्वास तोडती हुयी उम्दा प्रेरक लघु कथा।

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  4. अरविन्द जी
    नमस्कार !
    बहुत सुंदर संदेश देती लघु कथा !

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  5. रामप्रसाद के कान में भगवान ने बिल्कुल सही कहा।

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  6. बहुत सुंदर संदेश देती लघु कथा|धन्यवाद|

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  7. सार्थक,..संदेशपरक कथा ..शुभकामनायें

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