"लकडियाँ -रूपये 870/- " Lakadiya Rupaye 870 Short Story
2 min read
रामप्रसाद के पिताजी सरकारी सेवा में थे। जीवन में किसी तरह का अभाव नहीं था, लेकिन उसके पिताजी का बिमारियों ने कभी साथ ना छोड़ा मानो कोई पुराना हिसाब किताब बाकी रह गया हो। उसके पिताजी ने भी दुर्बल शरीर के सामने हार नहीं मानी। उनकी राय में शरीर चाहे कमजोर हो , हौंसले बुलंद होने चाहियें। किताबें तो सारी पढ़ डाली थी निरोग होने के लिए। उसके पिताजी सदा ही अपने से छोटे भायियो के लिए नरम दिल रहे। उनका खेत एवं पुस्तैनी घर भी वो ही काम में लिया करते थे।
रामप्रसाद की माँ अपने पति के लिए ऐसी समर्पित थी जिसकी कोई मिसाल नहीं दी जा सकती है। उनकी जीवन में कोई मांग थी तो बस ये की उनके पति भी दूसरों की भांति स्वस्थ हो जाएँ, इसके लिए ना जाने कितने डॉक्टरों, हकीमों और झाड फूँक वालों के यहाँ लिए फिरती थी। पढाई में तो रामप्रसाद अव्वल था लेकिन पिता के खराब स्वास्थ्य से अनिश्चित एव धुंधले भविष्य का आभाष भी रामप्रसाद को था । कहतें हैं की नियति को मंजूर हो उसे कोई टाल नहीं सकता, रामप्रसाद के पिताजी के दुर्बल शरीर ने आखिरकार बिमारियों के आगे घुटने टेक दिए, डॉक्टर ने बताया की दिल का दौरा पड़ा था. अंतिम संस्कार पैतृक गांव में हुआ।
कुछ ही दिन बीते होंगे की रामप्रसाद के चाचा ने जो की उसके स्वर्गवाशी पिताजी का विश्वाशपात्र भी था, ने रामप्रसाद को एक पर्ची थमाई। पर्ची में उसके पिताजी के अंतिम संस्कार में आये खर्चे का ब्यौरा था। राम प्रसाद ने इसे गलत नहीं समझा। लागत खर्चा तो चुकाना ही चाहिए। घर पर आकर रामप्रसाद देखा की उस पर्ची के योग में एक जगह लिखा था -"लकडियाँ -रूपये 870/- "
♦•♦•♦•♦•♦•♦•♦•♦•♦