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7.10.10

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भ्रष्टाचार



विचारणीय है की जो देश कभी संस्कृति, धर्म, समाज निर्माण में सर्वोच्च रहा करता था, वो ही देश आज "भ्रस्टाचार" में सबसे अव्वल है।  "भ्रस्टाचार" के मायने केवल घूँस लेना या देना, सरकारी संपत्ति की चोरी करने या हेरा फेरी आदि तक ही सीमित नहीं है। भ्रस्टाचार को प्राय: सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, नेता या अन्य किसी मुलाज़िम के द्वारा किया गया "गैर कानूनी", "अनैतिक" कार्य से जोड़ कर  ही देख लिया जाता है, जो की सही नहीं है। ये महत्वपूर्ण नहीं है की हमारा देश भ्रस्टाचार की सूची मैं कौनसे पायदान पर खड़ा है या फिर की ये कारोबार कितने काले धन के लिए उत्तरदायी ही है। महत्वपूर्ण ये है की आखिरकार कोई भला क्यों इस सर्व मान्य "काले गोरख धंधे" में लिप्त होना चाहता है? जबकि उसे ज्ञात है की मार्ग पतन का है।  भ्रस्टाचार है क्या? भ्रस्टाचार है "भ्रस्ट आचरण"। भ्रस्टाचारी कोई "एलियन्स" तो होते नहीं है। ये भी हमारे ही समाज का हिस्सा होते है। हमारे आस पास के ही रहने वाले होते है। सच तो ये है की मैं, आप और हर एक व्यक्ति जो हमारे समाज का हिस्सा है, वो भी भ्रस्टाचार के लिए उतना ही जिम्मेदार है जितना की स्वंय भ्रस्टाचारी ही। भ्रस्टाचार का मूल कारण है हमारी "भौतिकवादी" जीवन शैली। हम हर वस्तु, धन आदि को ज्यादा से ज्यादा बटोरना चाहते है। उसे अपना बना लेना चाहते हैं, क्यों की ज्यादा धन, संपत्ति का होना ही हमारी प्रतिस्ठा का प्रश्न बन गया है। अगर ये ना हो तो हम खुद को असुरक्षित पाते हैं। जिस व्यक्ति में जितनी ज्यादा असुरक्षा की भावना होगी, उसमें बटोरने की प्रवृति उतनी ही ज्यादा प्रबल होगी। असुरक्षा की भावना की जनक है "भौतिकवाद" सोच।  लेकिन कितना बटोरोगे? ये माया तो अंतहीन है। इसे बटोर पाना संभव नहीं है और अगर बटोर भी लिया तो कौनसा ये साथ में चलने वाली है ?

लेकिन हम फिर भी बटोरते है क्यों की हमारा समाज ही ऐसा करने के लिए उकसाता है, बाध्य करता है। बच्चे भी शुरू से ही इसी का अनुसरण करते हैं। वो देखते हैं की बिना धन के तो कुछ भी नहीं हो सकता है, उनका उद्देश्य ही बड़े होकर "ज्यादा से ज्यादा कमाना" बन जाता है। मैंने एक बार एक विद्यार्थी से पूछा की बेटे इस अध्यन का क्या उद्देश्य है?  उसने जवाब दिया की पढ़ने से नौकरी मेलेगी। मैंने फिर पूछा कौनसी नौकरी करोगे तो उसने जवाब दिया की सर...... मैं पुलिस की नौकरी करूंगा क्यों की उसमें "ऊपर की कमाई" बहुत होती है। अब छठवि के विद्यार्थी ने भी ऊपर की कमाई  ही उद्देश्य बना रखा है?
इसका कारण है की हमारे समाज में जिस व्यक्ति के पास जितना ज्यादा रुपैया, पैसा, धन होता है, उसे उतनी ही ईज्जत, मान सम्मान मिलता है। इसी से ही "और अधिक धन" कमाने की अंतहीन लालसा उदय होती है। जीवन निर्वाह के लिए धन की आवश्यकता नहीं है हमें....................... हमें आवश्यकता है "झूठी शान" की अब चाहे वो कैसे भी आए। कहने का तात्पर्य ये है की भ्रस्टाचार कोई बाहर की वस्तु नहीं है, ये तो हमारे ही संस्कार और शिक्षा का ही नतीजा है। संस्कार और शिक्षा दोनों ही हमारे समाज और परिवार से जुड़ी हुई हैं, इसलिए शिक्षाविदो को इस और भी ध्यान देना होगा। समाज का ताना बना जब तक सुधरेगा नहीं ये भ्रस्टाचार मुक्त समाज एक स्वप्न से ज्यादा नहीं है।

थोड़ा बहुत हम भी भ्रस्टाचारी है, मैं भी। क्यों की हमने ही इसे पाल रखा है। कहते तो बहुत ही चिल्ला चिल्ला के हैं की "भ्रस्टाचार समाप्त होना चाहिए, ये हमारी उन्नति को अवरुद्ध कर देता है... इससे योग्यता का दमन होता है.  .............. "आदि, लेकिन जब हमारा कोई व्यक्तिगत कार्य होता है तो समझौता करने में जरा भी नहीं हिचकते है। जैसे भी हो बस काम बन जाये, जल्दी बन जाए, सिद्धांतों को किसको सूझती है। गाड़ी का चालान कटने पर सौ दोसौ देकर समय पर घर पहुँचना, किसी लाइन मैं खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करने से अच्छा समझना की किसी बाबू को कुछ देकर जल्दी काम निकलवा लेना..रोडवेज में टिकिट की मांग ना करना और इसकी एवज में दस पाँच रुपये कम देना.. ये सोच, ये मानसिकता ही इन भ्रस्टाचारियों को जिंदा रखे है। कोई सख्त कानून बनाकर इनको रोका नहीं जा सकता है, क्यों की कानून तो हमने ही तो बनाए हैं, और बचाव के तरीके भी। ये समाप्त भी तभी  होंगे जब हमारी आत्मा के निर्णय प्रबल होंगे, हमारी सोच "आध्यात्मिक" होगी। इसी से विरोध करने का साहस भी मिलेगा.

मेरे एक परिचित के पिता काफी सज्जन मालूम पड़ते हैं। उनकी पहुँच बड़े नेताओ तक है और उन्होने इसी का सहारा लेकर अपने पुत्र को सरकारी सेवा में लगवा दिया। लेकिन क्या ये सही है? आप कहेंगे की नहीं बहुत ही गलत है..... लेकिन मेरे परिचित के स्थान पर आप होते और अगर फिर भी ऐसा ही कहते तो आप "भ्रस्टाचार मुक्त" होंगे।

दूसरा कारण जो की हमें भी भ्रस्टाचारियों की पैदावार में पोषण देने वाला बनाता है वह है विरोध ना करना मात्र देखे जाना। हम यदि स्वंय भ्रस्टाचार नहीं करते हैं लेकिन खुलेआम इसका विरोध भी नहीं करते हैं तो मेरे अनुसार हम सबसे बड़े भस्टाचारी हैं। हम चुप रहते है स्वंय के निहित स्वार्थों के चलते। बलिदान देना ही पड़ता है। अगर अभी भी चुप रहे तो ये कुकुरमुत्तों की फौज और बढ़ती ही जाएगी। ये खरपतवार निकालने का समय आ गया है। एक बात और की कोई आसमान से फरिस्ता नहीं आने वाला हमें इन दत्यों से छुटकारा दिलाने के लिए, ये लड़ाई हमें ही लड़नी है। मुझे.....आपको......हम सबको आवाज बुलंद करनी होगी, जब जाकर ये आधुनिक "कंस", "घटोचकच", "रावण" मैदान छोड़ेंगे।

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